बड़े यत्न से करी साधना, कितने जन बलिदान हो गए |
किन्तु हाय दुर्भाग्य, न जाने कहाँ सभी वरदान खो गए |
आशाओं के सुमन न विकसे, पूरा हो अरमान न पाया ||१||
महल सभी बन गए दुमहले, और दुमहले किले बन गए |
कितने मिले धूल में, लेकिन कितने नये कुबेर बन गए |
आयोगों का गठन हुआ, मन का संगठन नहीं हो पाया ||९||
फाड़ रहा है आज मनुज धरती सागर अम्बर की छाती |
चन्दा क्या, मंगल के ज्वालामुखि में भी है फेंकी बाती |
मनु के सुत ने मनुज कहाकर भी मानवता को बिसराया ||१०||
फिर भी है संतोष कि धरती अपनी है, अम्बर अपना है |
अपने घर को आज हमें फिर नई सम्पदा से भरना है |
किन्तु अभी तक हमने अपना खोया बहुत, बहुत कम पाया ||११||
ग्राथित हो रहे अनगिनती सूत्रों की डोरी में हम सारे |
होंगे सभी आपदाओं के बन्धन छिन्न समस्त हमारे |