लौट जाना चाहती हूं मैं फिर से पहाड़ों की ऊंचाइयों पर
प्रकृति की गोद में
उस निश्चल बहती सरिता के पास
या पेड़ों पर चहचाहते पक्षियों के बीच
जहां शांति ही शांति हो
जहां शहरों का कोलाहल नहीं हो
हवा विषाक्त ना हो
और ना हो अपने गुम होने का डर
लौट जाना चाहती हूं मैं फिर से पहानड़ों की ऊंचाइयों पर
फूलों की घाटियों पर
या उन खेतों की और
जिनका रास्ता गांव की ओर जाता है
जहां शांति ही शांति हो
लोग प्यार से रह रहे हो
सुख-दुख मिलकर सह रहे हो
जहां अपनो से दूरियां ना हो
वक्त ना होने की मजबूरियां ना हो
लौट जाना चाहती हूं मैं
उड़ते पक्षियों के बीच
हंसते फूलों के बीच
उस छोटे से गांव के
उस छोटे से घर में
जहां शांति ही शांति हो
जहां हर चीज सुंदर लगे
सब मुझसे प्रेम से मिले
जहां ईमानदारी और सच्चाई हो
जहां नफरत की दीवारें ना हो
दिल दहलाते हत्यारे ना हो
लौट जाना चाहती हूं मैं
लेकिन आज जहां भी देखती हूं
पहाड़,गांव, खेत सब बँट गए हैं
पहाड़ कटकर सड़कें बन रही है
दुनियां वहां की भी बदल रही है
अब वहां भी शांति नहीं
शोर ही शोर है
वे लोग भी शांति की तलाश में
हमारी तरह भटक रहे हैं
प्रकृति की गोद में कुछ क्षण
बैठने के लिए तरस रहे हैं
लौट जाना चाहती हूं मैं
लेकिन यह तभी हो सकता है
जब हम अपने को बदल ले
प्रकृति को ना छेड़ने का संकल्प लें
फिर से धरा पर सुंदर विचार फैलाएं
मानवता को धरा से प्रेम करना सिखाए
(©ज्योति)