दबदबा था अब दबदबे पर?
अनन्त राम श्रीवास्तव
अपने ठाकुर साहब को ऐसे ही खेल जगत का धुरंधर नहीं कहा जाता है। उन्होंने ऐसा धोबीपाट दांव चला कि सरकार सहित उनके सभी विरोधी चारो खाने चित्त हो गए।
ठाकुर साहब के दबदबे वाला बयान ने खेल जगत में वो धमाका किया उसके सामने विश्व के अन्य देशों में होने वाले धमाके फीके लगते हैं। ठाकुर साहब ने विरोधियों के हो हल्ला से तंग आकर अपने कदम पीछे खींचते हुए खेल जगत से सन्यास लेने की घोषणा कर मामले को ठंडा करने का प्रयास किया। विरोधियों ने समझा ठाकुर साहब ने हार मान ली पर ठाकुर साहब सभी को चौकाने का मन बना चुके थे।
जैसे ही खेल संगठन के चुनाव घोषित हुये उन्होंने चुपचाप अपने करीबी दोस्त को मैदान में उतार दिया। यही नहीं उन्होंने परदे के पीछे रहकर अपने करीबी दोस्त को जिताने के लिए पूरी ब्यूह रचना भी की। ठाकुर साहब ने अपने दबदबे के चलते करीबी दोस्त को जितवा भी दिया। इसके बाद "दबदबे वाला बयान देकर" जो दांव चला उसमें सभी विरोधी चारो खाने चित्त हो गए।
ठाकुर साहब के करीबी दोस्त समझ रहे थे कि "हर्र लगी न फिटकरी रंग आया चोखा" जीतने के बाद फूलों की माला पहने फूले नहीं समा रहे थे। ठाकुर साहब की चाल से आहत विरोधियों ने "सन्यास रूपी ब्रह्मास्त्र" चल दिया। इस ब्रह्मास्त्र से सरकार भी सकते में आ गई। राजनीतिक विरोधी इस आग में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंके उसके पूर्व ही सरकार ने ठाकुर साहब के करीबी दोस्त की नुमाइंदगी करने वाली कमेटी को ही निलंबित कर राजनैतिक विरोधियों के हाँथ से यह मुद्दा छीन लिया। अब ठाकुर साहब के करीबी दोस्त "न घर के रहे ना घाट के"। अब देखना है कि दबदबा किसका रहता है ठाकुर साहब का या उनके विरोधियों का अथवा सरकार का रहता है। मामले का ऊंट किस करवट बैठता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।
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आपका
अनन्त राम श्रीवास्तव