तुलसीदास के दोहे और विवाद
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"ढोल गवार शूद्र पशु नारी , सकल ताड़ना के अधिकारी", यह बात वाल्मिकी जी लिखे होते, तो लगभग चल सकता था। क्यौंकि वाल्मिकी के समय आर्य समाज का प्रसार हो रहा था। आर्य संस्कृति अपने प्रारंभिक अवस्था में थी। जब कोई भी समाज, विचार या आन्दोलन् अपने प्रारंभिक अवस्था में होता है, तो उसमें बहुत नियम कायदे कानुन होते है। फ़िर भी मै आर्य सभ्यता में किसी के प्रताडना की बात नही मानता हू। क्यौंकि आर्य लोगों को सभ्य सुसंस्कृत बनाने का एक मुक्त संगठन था। जिसमें बहुत सारी वनेचर, असभ्य, जंगली जातियाँ भी स्वेच्छा से शामिल होती गयी। जिसमें ज्ञान देकर वाल्मिकी, शुक, शौनक जेसे कई अन्य असभ्य लोगों को भी अपने मे शामिल करके ऊचा स्थान दिया। राम जी के इतिहास को वाल्मीकि ने ही लिखा है। जो देश की सभ्यता संस्कृति के मुख्य स्तंभ है। वाल्मीकि अपने ज्ञान अर्जन से रत्नाकर से महर्षि बने। कुलपति बने। जिनके गुरुकुल में हजारों शिष्य शिक्षा के लिए रहते थे। खैर इसमे बहुत गहरे उतरने की जरुरत नही है।
बात हो रही है तुलसीदास जी के मानस और उसमें लिखें दोहा की, "ढोल गवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी" की। जिस पर आजकल विवाद हो रहा है। जिस पर बोलकर लोग चर्चा मे रहना चाहते है। निषाद राज से दोस्ती, शिबरी के आश्रम में जाकर जूठे बेर खाने, स्त्री को देवी का दर्जा देने और जनजातियो की सहायता से लंका विजय की बात लिखने वाले तुलसी दास जी ने वास्तव मेँ शूद्र और नारी को लेकर आपत्तिजनक बात लिख दी।
वास्तव मे ऐसा नहीं है। जब गवार लिखा, तो शूद्र क्यौ लिखा?जबकी दोनो तो एक ही है। दोनो का मतलब ज्ञान रहित मनुष्य है। वास्तव में मनुष्य जन्म लेता है, तो शूद्र ही होता है अर्थात् ज्ञान रहित। जेसे जेसे बडा होता है, अपनी बुद्धि विवेक से जो बनना होता है, बनता है।
मनु की व्यवस्था है की कर्म से ब्राह्मण शूद्र हो सकता है। और शूद्र ब्राह्मण। मतलब कोई किसी एक ही वर्ण में रहेगा। यह मनु महराज की व्यवस्था में नही है। अगर ब्राह्मण अपने कर्म से हीन हुआ, तो शूद्र हो जाएगा। ब्राह्मणों के शूद्र में जाने की बात वेद पुराणों के कथानक में है। और शूद्र का ज्ञान प्राप्त करके समाज मे ब्राह्मणों से भी उँचा स्थान पाने की बात भी वेद पुराण के कथानक में है। वाल्मीकि का रामायण लिखना,आदी कवि की उपलब्धि, सूत शौनक का पुराणों का वाचन करना, सँजय विदुर का महाभारत के दरबार में ऊचा स्थान पाना सबको पता है। आज कितने ब्राह्मण है, जो गीता पाठ सन्ध्या कर्म आदी करते है। फ़िर भी ब्राह्मण हौ। शुक्र है भीमराव अम्बेडकर द्वारा बनाये संविधान की, जो कर्महीन/कर्मवान होने पर भी वर्ण से बेदखल नही होने देता है। ब्राह्मण नीच काम भी करे, तो ब्राह्मण ही रहेगा। और कोई शूद्र पढ लिख कर ज्ञान पा कर कुछ भी बन जाए, उसका वर्ण नही बदल सकता। मगर यह मनु महाराज की व्यव्स्था में सम्भव था। जो भीमराव अम्बेडकर की व्यवस्था मे सम्भव नही है। ब्राह्मण ब्राह्मण रहेगा और शूद्र शूद्र। तो किसका विधान ठीक है।
अब बात तुलसी बाबा की।स्त्री को देवी मानने वाले, शूद्र से वेद पुराणों का वाचन सुनने की बात जानने वाले तुलसी बाबा ने फ़िर क्यौ कह दिया ढोल गवार शूद्र पशु नारी। ढोल के संबंध में तो ताड़ना ठीक है।ढोल पिटने से ही बजता है। पशु भी ठीक है।गवार को भी मान लेते है।जो कोई वर्ग विशेष नही है।किसी भी वर्ण का व्यक्ति गवार हो सकता है। मगर शूद्र और स्त्री। तो क्या पुरा शूद्र पूरी स्त्री ताड़ना के लायक ही है। जी नही। दोहा मे तुलसीदास जी ने वेसे शूद्र की बात कही है, जो गवार है। और वेसे स्त्री के लिए कहा है, पशु के समान है। ढोल, गवार शूद्र और पशु समान नारी ताड़ना के लायक है।ताड़ना अर्थात् जो जेसे सुधरे उसे सहेजने सुधरने के लिए वेसा ही जतन करना।ढोल के परिपेक्ष्य में पिटना है, तो गवार शूद्र और पशु समान नारी के परिपेक्ष्य में गहन निगरानी। ऐसा मुझे लगता है।
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