चमकती इमारतों और आलीशान बंगलो,
चमचमाती सड़कों और सजे हुए गमलों,
ऊंचे ऊंचे हाइवे और बड़े बड़े आडिटोरियम,
दमकते शहर और पथरीली गालियां।
विकास के कितने प्रतीक हैं,
पूरे या आधे- अधूरे।
या आधे से भी कम,
या कुछ भी नहीं।
अब रोशनी भी जहर बन गई हैं,
अब प्रकृति भी कहर बन गई हैं,
वीरान जंगल सूनसान है,
और एक शहर में सब परेशान हैं।
अब हवा भी मगर बन गई हैं,
उसके जद में जाओगे तो मारे जाओगे।
बच भी गए तो भी मारे जाओगे,
धीरे धीरे और कभी न जान पाओगे।
भाग रहा है शहर,
दिन और रात, न भूख न प्यास।
जिंदगी कितनी सजीव या निर्जीव,
इसकी कोई न फिकर न बात।
किसी प्यासे को यहां पानी नहीं,
किसी भूखे के पेट की कहानी नहीं,
किसी के दर्द का कोई हमदर्द नहीं,
किसी रोगी की कोई राते सुहानी नहीं।
सिर्फ चमकती ईंटो और काँचो की प्रगति,
खोखली प्रगति हैं, बेरुखी प्रगति हैं।
इंसानी संवेदनाओं की अवहेलना,
इसकी न कोई सद्गति हैं, न सुमति है।
दोनों साथ हो तो कोई अच्छी बात हो,
किसी एक से ही न मुलाकात हो।
नहीं तो हम तबाह होंगे, बेपनाह होंगे,
हम भी उसी पत्थर की तरह होंगे।