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"श्रीमदभागवत गीता पर स्व के भाव। "{1}

24 November 2022

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            ¤卐 ॐ{ 2}ॐ卐¤
          ।।जयश्रीकृष्ण सभी को।।
        । अध्याय एक  प्रथम श्लोक ।

"धर्मक्षेत्रे,कुरुक्षेत्रे,समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पांडवाश्चैव किमकुर्वत संन्जय।।"

अर्थ:-:::::- यहा  उक्त  श्लोक मे धृतराष्ट्र  संन्जय से प्रश्न करते हैं कि ," हे संन्जय यह धर्मभूमि कुरुक्षेत्र मे युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे तथा पाण्डू पुत्रो ने क्या किया।।"

विवेचन:-आप देखे कि  श्रीमदभागवत गीता की शुरुआत  ही एक ऐसे प्रश्न से  व उसके द्वारा की जा रही हैं जिसका कारण वो स्वयं हैं।।और इतना ही नही उसका  संदेह, भय,व भविष्य की अनिश्चितता सब जस की तस अभी भी वैसे ही  विद्यमान हैं जैसे वो पूर्ववत बलवती थी।।
कारण  हम सब जानते हैं।।
यदि नही जानते तो जाने।
यह स्थिति  आज भी क्यू हैं यहा ?
व कहा से आरंभ  हुई थी ?
व जिस मुहाने पर आज सब रण मे खडे हैं व ,इस युद्ध का जो कारक है वो तो स्वयं  धृतराष्ट्र ही  तो हैं जो शारिरिक रुपसे ही नही बौद्धिक रुप से भी अंधता लिए हैं।।
यह हर रुप  मे अंधा हैं।चाहे वो धर्म से हो,विचार  से,शरीर से अथवा कामना व बुद्धि से।।
जबकि बदनाम  कौन  हैं?
दुर्योधन।।
आप सोचेंगे  व पढेगे तो पाएगे,कि फल पेड की स्थिति का परिणाम हैं।।
इसे यूं समझे।।
असल मे धृतराष्ट्र की अति महत्वकांक्षी अभिलाषा ही तो आज की स्थिति हैं यहा यह रण भूमि सजी हैं।।
क्या लगता हैं आपको दुर्योधन  कितना जिम्मेदार  हैं।।
तो मेरे हिसाब  से यदि प्रतिशतता  मे नापे तो  पचास  प्रतिशत  का जिम्मेदार  दुर्योधन हैं। बाकि पचास का जिम्मेदार तो यही जन्मांध ही दोषी हैं।
अपनी अति बलवती मोह,लालच  व वासना की इच्छा के चलते अपनी महत्वकांक्षाओ को दुर्योधन पर भी लाधने मे यह अंधक धृतराष्ट्र जरा नही हिचकिचाया। व उसके जीवन  को भी नारकीय  व अभिशप्त बना कर अपकीर्ति उसके माथे मढने का कारण हुआ।।
बलि भी  फिर एक पुत्र की नही औरो के वंशज के खात्मे के साथ साथ अपने सौ पुत्रो की  भी दिलवाई।।
किसके लिए  एक वासनात्मक कामना के लिए  जिसके लिए  वह सदैव  अयोग्य था।
सावधान:-:::::::
"यही मै आपको रोक कर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि अयोग्य होने की स्थिति पर जितने प्रपंच आप रचेगे उतने ही आप अपने नाश का कारक  बनेगे।।
हम हर बार  ईश्वर को कोसते हैं हमारे पास  यह नही हैं वह नही है,आप सोचे कि क्या उस अभिलाषित वस्तु की आपकी पात्रता हैं।
यदि पात्रता  होती तो ईश्वर  किंचित भी आपको उससे महरुम न रखता।।
एक चीज  और समझे,
यदि ईश्वर  को मानते हो तो दो चीजे समझ ले पहली की ईश्वर  व्यापारी नही कि लाभ हानि के सौदे करे।।
उसपर  आस्था है तो  समझ ले वो सदा सदैव  आपकी खुशी चाहता हैं।।
वो दुख नही आपके सुख को हैं।
वो तो आपकी इच्छा पूर्ति को हैं।
न कि आपसे बदले लेने को।।"

तो चलिए  लौटते है अपने मूल विवेचन  के विषय पर।
अब जो यहा धृतराष्ट्र संन्जय से प्रश्न  कर रहा हैं उसका वास्तविक कारण  तो वही हैं जो बताया कि अयोग्यता के बल पर  उस इच्छा को बलात हथियाना चाहता हैं । वो उसको बचाए रखने के प्रयास को  हर कुचक्र रच भी चुका हैं।।
"यह धृतराष्ट्र  जोकि धृतता का राष्ट्र या सागर है वो हम सब के मन मे भी कुवृत्तियों के रुप  मे मौजूद हैं।।
व प्रश्न जिससे किया हैं वो दिव्यता लिए  हैं किसकी संयम की ।।कहा से आई ईश्वर कृपा से आई।।यह संयम ही संजय हैं।जब हम अपने ह्रदय मे संयम का भाव स्थापित करते हैं तो संजय हो जाते हैं।।
इन्हे मात्र  नामो या व्यक्ति की दृष्टिकोण से ही नही,बल्कि  संस्कार, व्यवहार  व वृत्तियों के पलडे  मे भी तौले।
अभी यह तो आप भली-भांति जानते हैं की युद्ध आज का जो उपस्थित हुआ है वह वास्तव में धृतराष्ट्र की अति महत्वकांक्षी होने के परिणाम स्वरूप की स्थिति जो उसके न काबिल होने के कारण उसे दी ना जा सकने वाली चीज थी ,थी क्या वो ?
राज्य सिंहासन। ।।
परंतु उस चीज को पाने के लिए उसके मन में इतनी प्रबल पैठ थी कि उसने वह इच्छा अपनी भावी पीढ़ी को भी स्थानांतरित कर दी, तभी तो दुर्योधन इस महत्वकांक्षी  इच्छा का अनायास ही पात्र बना।जो कि वास्तव में उसके पिता द्वारा पोषित थी ।वह उसका  वाहक बना, ।
अब सामान्य जन को यदि हम लक्षित करें तो वास्तविकता तो यही है कि जब हम किसी पद वस्तु प्रतिष्ठा के अयोग्य होंगे तो पहले तो वो हमे   बिना योग्यता के कैसे मिल सकती है ?
परंतु फिर भी यदि हम उसे पाने की लालसा रखते ही हैं तो क्यों ना योग्यता के बल पर रखें।
बलात किसी चीज को हथियाना ही अधर्म है जिसके उदाहरण समस्त कौरव बने जब भी आप किसी पद प्रतिष्ठा मान के योग्य होंगे तो वास्तविक सम्मान के पात्र भी होंगे। और जब सत्कर्म से इसे पाएंगे तो उसका लुत्फ भी उठाएंगे मान लीजिए धन की इच्छा है और उसे पाना चाहते हैं ,अब यह धन कुछ भी हो सकता है तो पाने के दो ही माध्यम है एक है सत्कर्म दूसरे हैं दुष्कर्म।
मेहनत मशक्कत और योग्यता सत्य श्रेणी या धर्म  की राह  है।
और अन्य बलात चेष्टाए  कुकर्म की श्रेणी में है। अर्थात  अधर्म है।
तो रास्ते दोनों ही होते हैं। मगर मात्र चुनाव के आधार  पर  पता  चलता हैं कि आप धर्म  को लेकर  चल रहे हैं अथवा अधर्म को।    आपको आपके परिणाम  की  स्थिति  किस और  ले जाएगी व उसका हश्र क्या होगा,यह यही दो मार्ग। धर्म  व अधर्म  समझाते हैं।और यही आप को आपके परिणाम की ओर ले जाती है। यदि आप सत्कर्म अनुसार बढ़ेंगे तो फल तो पाएंगे ही उसका आनंद भी उठाएंगे ।
परंतु वही यदि आप अधर्म के कर्म से फल पाने की चेष्टा करेंगे तो सदैव भयभीत रहेंगे कभी भी आनंद के असली आनंद के भागी नहीं बनेंगे।
मित्रों यही स्थिति आज धृृतराष्ट्र की है। उसने हर छल, बल,व  कुकर्म को बढ़ावा दिया उसे देख कर  भी अंधा बना रहा । कभी भी उसका विरोध नहीं किया उसे राज सिंंहासन मिले बस और वह उस पर बना रहे यही उसकी चेष्टा रही। अब यदि कोई पूछे तो पांडु की मृत्यु के बाद भी तो राज सिंहासन उसे मिला ही था ,परंतु वह सदैव के लिए ही उसे पाना चाहता था और यही नहीं अपनी अगली पीढ़ियों के लिए आरक्षित करना चाहता था वह भी वैसे ही छल से लालच से काम से  और मजे की बात यह कि वो भी सुपात्र न थे।और यही काम वासना  की अंधता उसकी शारीरिक अंधता के साथ उसके धार्मिक अंधता बन गई ।
इसीलिए लक्ष्य अधर्म क्षेत्र अर्थात जहां धर्म   कर्म नही या गलत राह पर चलने वालो की भीड  है पर चलते चलते वह आज आशंकित हैं।
वही पांडू पुत्र ,तटस्थ से हैं।
हालांकि संशय वहा भी होगा पर वो भिन्न किस्म का होगा।
गलत राह पर बढ़ने  वाले कौरव जन है।
अब हम प्रथम शब्दो की व्याख्या करते हैं धर्मक्षेत्र  :- धर्म क्षेत्र यानी सन्मार्ग सत मार्ग जहां पर सत्य ही फैलाव है।यह सत्वृति को भी बताती हैं। यानि सद आचरण की वृति ।।
कुरुक्षेत्र :-  वह स्थान जहां गलत निर्णय लिए जाते हैं जहां कुकर्म होते हैं ।व बलात  होते हैं।अनैतिक कारण का स्थान। अर्थात  मन की वृति की बात  करे तो कुवृति। बुरे संस्कार का सृजन। ।
समवेता :- यहां सही मार्ग सत्कर्म योग्य एवं समर्थ  लोग  व गलत रास्ते अख्तियार करते आए छल वाले क्रूरता का परिचय देते आए कौरव   व सन्मार्गी पांडू  जैसे साथ साथ रहकर  जो अब आमने-सामने हैं ।समान रूप से क्योंकि आमने-सामने है इस देश  काल मे तो समवेता अर्थात समान  स्थल।पर खडे हैं।
धृतराष्ट्र भी  जानता है कि धर्म किस और है। और वह यह भी जानता हैं कि जीत भी धर्म की ही होनी है।
किंतु फिर भी आज और भी विचलित है। क्योंकि आकांक्षा पाले हैं शायद उसे छल बल से सिंहासन पाने की उसकी कुचेष्टा  निष्कर्ष तक उसके हक से खिसकती नजर आ रही हैं, वो भी तब जब सच भी जानता हैं। ।पर सामना नही करना चाहता।
इसी कारण  वह संजय से जानना चाहता है कि मेरे व पांडु पुत्र की स्थिति क्या है?
  यह तो निश्चित है कि उसे इस बात का ज्ञान है कि वह गलत ढंग से उस मोड़ तक पहुंच तो गया है जहां से विजय श्री अर्थात फल प्राप्ति अब दूर नहीं ।
पर किसके  भाग्य मे यह विजय  होगी यहा आशंकित व भयभीत है, दूसरे अपने आडंबर के फैलाई जाल  की स्थिति को भी समझ रहा है ,कि वह किस स्थिति में है ।।
वह सोचता हैं पांडु पुत्र उसको समझ नहीं रहे।
और आमजन एक सामान्य नागरिक या व्यक्ति भी ऐसी स्थिति का सामना अक्सर  करता है।
अब मजे की बात यह है कि जब वह अपनी आकांक्षा प्राप्ति हेतु प्रयासों को अंजाम दे रहा होता है उसी समय उसे सजग व ईमानदार व कर्म प्रधान होना होगा ,तभी वह योग्य कुशल बनेगा और यह सही लक्ष्य को पाएगा सही तरीके से काबिलियत के बल पर पहुंचेगा । वहा  देर भले ही हो जाए परंतु सफल अवश्य होगा ।
और वह सफलता का आनंद भी उठाएगा किंतु वहीं यदि वह स्वयं को अपने साथ ईमानदारी प्रयास नहीं करेगा तो निश्चय ही धृृतराष्ट्र की तरह फल पाने के लिए अंत तक आशंकित रहेगा ,क्योंकि हमारे प्रयास ही बता देते हैं कि सफलता किस ओर है। सच्चाई पर चलते हुए  अच्छे किए गए प्रयास  आनन्द का कारण बनते हैं वहीं कुमार्ग व अशिष्ट  व्यवहार से ऊंचाई तक पहुंचे व्यक्ति भय के कारण ,ना तो काबिल बन पाता है  व अयोग्यता के चलते न वहा स्थायित्व ही रख  पाता हैं।
आशंकित होने के कारण से उसकी अधिकृत मिल्कियत का आनंद भी नही उठा पाता है ।
तब भी जबकि  वस्तु  उसके अधिकार  में है और उसे भोग भी रहे हैं। परंतु उसका कोई  आनंद नही ।।
प्रथम श्लोक ही  हमारा यह जीवन  रहस्य को  कि कैसे जिए  ? इस का इशारा कर देता है ।।
और यह सब संभव  कोशिश रखने को कहता हैं कि सदैव धर्म का अनुसरण  करो।
हम सब लोग धर्म शास्त्रार्थ निहित कर्म व न्यायपूर्ण कर्म  करते हुए  आगे बढे।।
अंत या परिणाम मैंने शुरुआत में ही कहा था कि हमारे प्रयासों का नहीं हमारे  चुनाव के अंजाम का कारण होता है।।
नाराज हम भगवान से हो जाते हैं दोष  ग्रहों को देना शुरू कर देते हैं ।आपको क्या बनना है यह आपके प्रयास व रुचि व कर्मों के प्रबलता निश्चित करती हैं और इसमें कोई संशय नहीं कि आप हर हाल में सफल होंगे किंतु यदि  आपके साथी,,किंतु ,परंतु, जैसे  संकेत करने वाले शब्द  है जो  ईमानदारी से प्रयासों में कमी के कारण उत्पन्न होते हैं  तो  इनके संग का हवाला रखते हैं,  आप तो फिर  आप निश्चित रूप से अयोग्य रह जाओगे।।
फिर आप देखिए क्या कभी अर्जुन पंडित के पास गए कोई भविष्य जानने के लिए ।
नहीं ,उन्होंने अपना भविष्य  स्व  लिखा। धर्म  मार्ग पर बढते हुए  संयम अंत तक बनाए  रखा।
और यह हर  आम व्यक्ति प्राणी जीव के साथ होता है जब तक प्रयास सार्थक व सशक्त होते हैं तो सफलता निश्चित होती है  कारण  धर्म कर्म का मीठा फल हमेशा सत्य की ओर ही रहता है।
परंतु इधर  आज  धृृतराष्ट्र सत्य से बहुत डरा हुआ है इसीलिए जैसे यह प्रश्न कर रहा है कि युद्ध में दोनों की स्थिति क्या है यहां पर संक्षेप में धृतराष्ट्र बुरी तरह से भयभीत  व कदाचित  परिणाम से परिचित हैं।।
      ###हरि ॐ तत्सत्।###
विवेचक।
संदीप  शर्मा।।

जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जी ।।
मिलते हैं अगले भाग  मे।अन्य श्लोको को समझने के प्रयास  के साथ।।
जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जी।।


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