आदरणीय मित्रगण, पाठकगण, सुधिजन व स्नेहीजन ,,
जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण।।
हम "श्रीमदभागवत गीता पर स्व के भाव" मे आज इसके तीसरे श्लोक पर चर्चा करेगे।।
आप कृष्णाय नमः का उच्चारण करे व पढे एवं समझे।।
जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जी।।
गीता जी का तीसरा श्लोक:-
"पश्यैतां पाण्डूपुत्राणामाचार्या महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।"
अर्थ:-
हे आचार्य, पाण्डू पुत्रो की विशाल सेना को देखे,,जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र ने इतने कौशल से व्यवस्थित किया हैं।।
विवेचन :-आप ने पढा क्या लिखा हैं। हे आचार्य पाण्डू पुत्रो की विशाल सेना को देखे, जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य, द्रुपद के पुत्र ने कितने कौशल से सजाया हैं।।
यदि आप गीता अर्थ सहित पढते हैं तो अर्थ तो हो गया ।
पर यदि आप गीता जी को एक अध्यात्मिक अध्ययन के रुप मे पढे तो यह कुछ और भी समझाती दिखती हैं जो आप समझ नही पा रहे।
क्यूं क्योकि लिखा नही हैं जो लिखा था वो तो पढ लिया पर जो नही लिखा उसे कौशल से समझना हैं तभी इस शास्त्र की महिमा व उपयोगिता हैं।( यहा अध्यात्मिक से ताल्लुक अध्ययन की गहनता व उसके परे कि समझ से हैं।क्या हैं वो समझ जो केवल अर्थ न समझा सके।)तो माननीय चलिए आए समझाता हूं वह समझ।
यहा दो बाते स्पष्ट दिखती हैं जो अर्थ मे गौण व मौन हैं।
पहली, धृतता,
दूसरी राजनीतिज्ञता। ।
धृतता यह कि दुर्योधन जिसका धन ही द्रुतता हैं वो अपने आचार्य गुरु द्रोणाचार्य को उत्साहित व प्रेरित कर रहा हैं,।
प्रेरित जी हां प्रेरित ।
किस लिए ?
वो इस लिए कि वो गुरु द्रोणाचार्य को याद दिला रहा हैं कि द्रुपद जोकि गुरु द्रोणाचार्य का पुरातन शत्रु हैं वो उसका नाम लेकर उसे भुनाना चाहता हैं ताकि गुरुर की कुटिलता धृतता मे आग मे घी का काम करे दूसरे राजनीतिज्ञता:-
वह यहा भी छल बल की राजनीति से सरोबार हैं ।
वह यह भी अपने गुरु द्रोणाचार्य को याद दिलवा रहा हैं कि द्रुपद ने गुरु द्रोणाचार्य को समाप्त करने के लिए ही यज्ञ कर पुत्र की कामना की थी जोकि उनकी मृत्यु का कारण बने सो यहा यही खेल दुर्योधन अपनी कुटिलता का परिचय देते हुए खेल रहा हैं कि वो गुरु द्रोणाचार्य को अधिक से अधिक क्रोध दिलवाए ताकि पांडव सैना का समूल नाश हो।।
एक और बात वो यहा यह भी गुरु से बिन कहे कह रहा हैं कि उनकी सैन्य सज्जा कौरवों की सैन्य सज्जा से भी उत्तम हैं।
यानि वो अपने गुरु की युद्ध मे उनकी स्वामिभक्ति पर भी प्रश्न चिन्ह खडा कर रहा हैं कि आपका कौशल उनके यानि पांडव के कौशल से हीन हैं।।
तो यहा दुर्योधन अपनी दुर्बुद्दि का प्रयोग कर एक तीर से कई निशाने साधने को भी प्रयासरत हैं।।
वह कुबुद्धि दुर्योधन यह भी जानता हैं कि शैक्षिक रुप मे भी द्रुपद पुत्र को भी गुरु द्रोणाचार्य ने ही सुशिक्षित किया हैं उसे हर प्रकार के युद्ध कौशल से भी संपन्न कराया हैं वो भी तब जबकि वो इस बात से भली भांति परिचित थे कि वह द्रुपद पुत्र ही उनके परम शत्रु का पुत्र व उनकी मृत्यु का कारण हैं।
कौन है वो काल जी द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न। ।
यहा यह बताकर भी वह गुरु द्रोणाचार्य को उत्साहित कर रहा हैं ।क्योकि वास्तविकता एक और यह भी हैं कि वह धृृतराष्ट्र से उत्तराधिकार मे मिली नफरत, व धृतता लिए हैं,दूसरे यह भी जानता हैं कि द्रोणाचार्य का परम प्रिय व आत्मिक संबंध रखने वाला शिष्य अर्जुन विपक्ष मे खडा हैं, तो कही गुरु स्नेहपूर्ण आचरण के चलते कही कमजोर या निर्बल न पड जाए इसलिए भी वह यह सब कह रहा हैं।
आप देखे कि एक पंक्ति मात्र एक पंक्ति कितनी असाधारण तथ्य छिपाए हैं जो कि केवल व केवल युद्ध की समझ व परिपक्वता लिए बौधिक कौशल वाला ही सोच सकता हैं यहा बस फर्क यह है कि यह बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य गलत हाथो मे होने के चलते अपने अपनो के विश्वास को मजबूत नही कर पा रहा।
कितनी बडी विडंबना हैं जिस पर दुर्योधन को मान होना चाहिए था वो आज उन्हे संदेह की दृष्टि से देख रहा हैं ।
वो धृष्टद्युम्न की युद्ध कौशल मे सजाई सेना का गुणगान कर रहा हैं।
वह राजकुमार भी हैं इसलिए वह युद्ध की हर बारीक से बारीक कमी व समृद्धता पर नजर रखे हैं।
कि कहा कौन सी चाल कब व कैसे चलनी हैं इसमे तो वह हर रुप मे माहिर आरंभ से ही रहा हैं ।उसने ताउम्र चाले चलने के अलावा किया भी क्या हैं।।।
क्या यह सब आपको इन कही गई श्लोक की पंक्तियों मे कुछ दिखा ।
नही न
तभी कह रहा हूं ।
इसका अध्ययन गहनता से करे साथ जुड़ाव रख कर करे।।
अभी तो आगे चलकर जो बताऊंगा वो तो इन सबसे कही परे ले जाएगा ।सो पढते रहे श्रीमदभागवत गीता पर स्व के भाव।।
अब सामान्य नागरिक या आदमी की बुध्दि से अपनी बात कहने या रखने का प्रयास करता हूं।
आप देखे जब दुर्योधन कह रहा है न उक्त पंक्तियां तो भय भी स्पष्ट दिखाई दे रहा हैं कि वह युद्ध के आरंभ से ही शंकित हो उठा हैं उसका धैर्य व छल बल जवाब सा दे रहा हैं।
पूछेगे नही कैसे ?
तो वो ऐसे उनकी सेना को विशाल कह रहा हैं यहा मात्र सात अक्षौहिणी सेना हैं।।
जबकि उसके अपने खेमे मे ग्यारह अक्षौहिणी सेना हैं वो भी ऐसे मे तब।।
आप एक और बात समझे, वो यह कि जो उसके अपने मोहरे इकट्ठे किए है सैन्य रुप मे उन सब पर भी सभी को आपस मे अविश्वास हैं।
उसका कारण भी स्पष्ट हैं कि जैसी आपकी सोच होगी वैसा ही आप अपने मन मे विचार रखेगे और वो ही दिखेगा जैसी आपकी मन की स्थिति हैं ।
यही कारण हैं,कि हमारी आपसी विभेद बना रहता हैं।
बहुत बार वो बात होती भी नही जो आप सोच रहे होते हैं,
व सोच क्यू रहे होते हैं ,कारण आपकी सोच वैसी हैं यहा युद्ध के मुहाने पर बस यही खेल खेला जा रहा हैं।
अविश्वास का,भय का,छल,बल, दंभ भ्रम, तो है ही कुटिल बदले की सब गलत साधन व साध्य आज कौरव पक्ष मे खडे हैं वो भी आपस के अपने अपने अभिमान मे।।
अब देखें की दुर्योधन कितने संदेह प्रकट कर रहा है इसके कई कारण है एक तो जैसे कि बताया कि गुरु द्रोण का प्रिय शिष्य दूसरे दल में यानी विपक्ष में है ।दूसरे द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न की और इशारा कर रहा है क्योंकि वह भी गुरु द्रोण का शिष्य रह चुका था और उससे भी बड़ी बात कि राजा द्रुपद ने द्रोण से बदला लेने के लिए ही यज्ञ के फल स्वरुप उसे पाया था क्योंकि द्रोण की मृत्यु का स्पष्ट कारण होने के लिए ही पैदा हुआ इतना ही नहीं दुर्योधन द्रोणाचार्य को यह भी बता रहा है कि जब गुरु द्रोण सच्चाई जानते थे तो भी उनमें से जो जो युद्ध के दांव पेंच थे वह न केवल उनहे सिखाएं बल्कि उस मे उन्हे पारंगत भी किया यह जानते हुए भी कि वह उसकी मृत्यु का कारण है और फिर स्वयं के शरीर को भी पहचानता है अतः विचलित है आप देखेंगे कि पांडु पुत्र की सेना में मात्र 7 अक्षौहिणी सेना वही कौरवों के पक्ष में 11 होने के बाद भी 7:11 का अनुपात होने पर भी संख्या बल में अधिक होने की बात कहना भय ही संबोधित कर रहा है न । और अपने आप को छोटा बता रहा है। यह स्थिति तभी आती है जब आप डरे होते हैं, और किसी वस्तु के पाने के लिए किया गया फरेब व छल आपको सताए हो जो यहा दिख रहा हैं।।
अब जो छोटी सी बात इस पूरे श्लोक में परिलक्षित होती है वह बताती है कि एक छोटी से छोटी गलत व अनैतिक बात व प्रयास एक अति विशाल व बड़े से बड़े पहाड़ को उखाड़ फेंकती हैं । अब जनसामान्य को समझने वाली बात यह है कि योग्यता बढ़ाने पर ध्यान लगाओ न कि बाद में तरह-तरह के अभाव व कमियों को छुपाने के लिए अंतहीन भयभीत प्रयासों को अपनाने मे व , जो योग्यता को दबाने के लिए प्रयोग में लाए जाएंगे यही मार्गदर्शक तो गीता कर रही है हमें आरंभ से ही कर्म प्रधान बनने की साथ साथ सत्य पर बढ़ते रहने की प्रेरणा देने को कहती है ताकि सहज रूप से स्थाई फल का आनंद उठाएं छल कपट से झूठ के दम पर अस्थाई तौर पर कम समय किया गया अल्प प्रयास भावी समय के लिए असफलता को स्वास्थ्य के बगैर।।क्योकि ऐसे मे यह सफलता ,सफलता न होगी अगर आपने कोई छल कपट से छीन कर उसे हथिया भी लिया तो यह झूठी तसल्ली ही होगी, क्योंकि स्वपन में की कृति की भांति यह धराशाई हो जाएगी मेहनत व श्रम से पूरी मेहनत मशक्कत से काबिल योग्यता बढाने में खुद को लगाओ इन सबसे पहले ही बताई गई असुविधाओं से बचोगे यही संदेश गीता देती है यही आज के लिए न्याय संगत है व अति महत्वपूर्ण है यही इस श्लोक का महत्व हैं
ओम श्री कृष्णाय नमः
ओम श्री कृष्णाय नमः
ओम श्री कृष्णाय नमः
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विवेचक,
संदीप शर्मा।।
जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण।