।हरि ॐ तत्सत्।।
।जयश्रीकृष्ण आदरणीय गण,।
। नमन ।
आज की राधे राधे संग पुनः जयश्रीकृष्ण।।
पिछले अध्याय मे हमने गीता जी के प्रथम श्लोक पर चर्चा की थी आइए, अब बढते हैं उसके अगले श्लोक की और।। जोकि हैं,,
श्रीमदभागवत गीता जी का,,दूसरा श्लोक:-
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"दृष्टां तु पांडवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदां।
आचार्यमुपसंड़ग्म्यं,राजा,वचनमब्रवीत ।।"
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अर्थ:- यहा गीता जी के शब्दानुसार " संन्जय ने कहा,,'हे राजन। पाण्डू पुत्रो द्वारा सेना की व्यूह रचना देखकर राजा दुर्योधन, अपने गुरु के पास गया,और उससे यह शब्द कहे।।
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अर्थात,,अब युद्ध स्थल की स्थिति से संजय धृतराष्ट्र को अवगत कराते हुए कह रहा हैं।
आप देखे कि अभी भी धृतता धरे धृतराष्ट्र को जो संजय बता रहा हैं,कि पाण्डू की सेना को देखकर अब दुर्योधन अपने गुरु के पास जाता हैं व उनसे कहता हैं।।
(क्या कहता हैं? व ,
क्यू कहता हैं इस पर भी चर्चा करेगे।)
पहले श्लोक समझते हैं,,
विवेचन::--- जब धृृतराष्ट्र ने संजय से आशंकित होकर प्रश्न पूछा था की युद्ध की क्या स्थिति है ? तो उत्तर या जवाब में "संजय ने धृतराष्ट्र से यह कहा कि पांडू पुत्रों की सेना की व्यूह रचना देखकर अर्थात संजय हालांकि एक निष्पक्ष सा दिखने वाला पात्र है। व हमने उसे संयम रुपी व निष्पक्ष सा माना हैं । तब भी जिसे हम संयम की प्रतिमूर्ति मानते हैं व जिसका कार्य मात्र धृतराष्ट्र को युद्ध के प्रति पल की खबर से अवगत कराने के साथ ही उसका आंखों देखा हाल बयान करना है वह धृृतराष्ट्र को वहा क्या हुआ की स्थिति बता रहा हैं।
अब आप यहा भी देखे तो यहा दो बातें दिखती है ।
पहली:- कि वह धृृतराष्ट्र की महत्वाकांक्षा से भली भांति परिचित है। व उसके प्रति वह भी समर्पित हैं। कही कही वह उससे भयभीत भी था ।क्योंकि उसके इतिहास के कारण को जानता था ,
कि वह किस हद तक अपनी इच्छा पूर्ति हेतु जा सकता है ।व यहा तक कैसे पहुंचा हैं।
दूसरा :- स्वामिभक्ति कह लो या चाटुकारिता के कारण से भी ऐसा बताने का प्रयास कर रहा है, कि अभी तक सब उसकी योजना अनुसार ही चल रहा है। अर्थात वह धृतराष्ट्र का ढांढस बढाना चाहता है, व सान्त्वना भी लगती हैं।।
आगे वह कहता है कि तुम्हारा पुत्र दुर्योधन अपने गुरु ,गुरु द्रोणाचार्य के पास गया है ।और यह शब्द कह रहा है और उनसे यह बतला रहा है ।
यहा आप देखें कि प्रथम श्लोक गलत प्रयासों के चयन से उपजे प्रतिफल के उपरांत इस श्लोक में शंका और बलवती हो रही है।
व भय भी बढ़ रहा है ।
एकतरह से हड़बड़ाहट सी दुर्योधन को परेशान सी किए दिखती हैं पर वो जिद्द भय, व दुष्टता के चलते स्वीकार न कर अहम से लबरेज हैं।
इधर धृतराष्ट्र की धृतता का अंत नहीं वह अभी भी ऐसी स्थिति में भी चाटुकारिता व दंभ के आसन पर बैठा है ।
इतना ही नहीं संजय भी उसके डर के कारण या स्वामिभक्ति के कारण, अथवा कर्तव्य निर्वाह के कारण, तसल्ली सी देता नजर आता है।
जब वह कहता है कि दुर्योधन अपने गुरु से कुछ शब्द कह रहा है।।
तो यहा तक धृतराष्ट्र को थोडी तसल्ली हैं पर उत्कंठा हैं कि क्या कह रहा हैं यह जिज्ञासावश वह खामोश हो गया व मन मे दोनो के ही उथल-पुथल विद्यमान हैं।। यह दोनो दुर्योधन व धृतराष्ट्र हैं।
कारण भी स्पष्ट हैं कि झूठ ने सच से,
क्रोध ने संयम से,व पाप ने अब पुण्य से सामना करना हैं।।
अब यहा हम सब जनसाधारण भी समझे कि हम और आप भी छल,बल,झूठ, व प्रपंच के गिरि पर बैठ स्व को कितना भी ऊंचाई पर क्यू न ले जाए व महसूस कर रहे हो, पर हमारे कदम हमारे गलत रास्ते यदि हमने अख्तियार करे थे तो डगमगाते अवश्य हैं।
उनकी पकड कभी भी चिरस्थाई नही होती।।
जितनी सत्य के पथ पर अग्रसर व्यक्ति की होती हैं।
जब कोई भी सन्मार्गी अथवा कुमार्गी किसी फल के अंजाम तक पहुंचने वाला होता है तो जो तो ईमानदारी व काबिलियत के बल पर आगे बढ़ कर पहुंचा हैं, भले ही साधन की कमी हो व अन्य कमिया कैसी भी कयू न हो वह तो सफलता के लिए निश्चित होता हैं ।।
किंतु जो छल बल से पहुंचे हैं भले ही वह कितने ही साधनो व समृद्धता से परिपूर्ण ही क्यू न हो ,वह सदैव ही भयभीत व सुकून रहित ही रहते हैं ।।
और उन्हें शक संदेह व अनिश्चितता घेरे ही रहती हैं।।
व जिन्होंने उसे छल बल को बढ़ावा देने में सहयोग दिया वो साथीगण साथ देते नजर तो आएगे व उसे निश्चित करते भी रहेगे कि सफलता तेरी होगी।।
पर वास्तव में उसके फल को उसको बताने से कतराएंगे भी क्योकि वो भी शंकित व परिणाम से कही न कही परिचित होते हैं।।जहां देखने वाली बात यह है कि श्रीमदभागवत गीता के हर श्लोक के प्रयोग में हमें ईमानदारी से करे प्रयास व कर्म योगी सा होने के साथ सत्य के मार्ग पर चलने का संदेश मिलता हैं ।।
सभी उक्तियों ने आरंभ से ही असत्य से सत्यता की और धकेलना शुरु कर दिया हैं। ताकि फिर असफलता की कोई गुंजाइश ना रहे ।
हम देखते भी हैं कि अक्सर हम धोखे से जिद्द से अथवा किसी ऐसे अनैतिकता से किसी रिश्ते,पद अथवा किसी भी प्रयास से किसी से जुडते हैं। तो ज्यादा लंबी उम्र तक टिक नहीं पाते है ।।
कारण पाप की उम्र सदैव छोटी होती है। किसी विशेष लालच इत्यादि या किसी अन्य कोई भी कारण से यदि हम पाप को स्व से जोड़ते है तो स्व को ही मुश्किल मे डालते हैं। यही हो रहा है कि नही आज के युग मे भी ।सो यह अनिश्चितता हर काल देश व स्थिति मे ज्यू की त्यों मौजूद है ।।
आप सतयुग, त्रेतायुग, या द्वापर व कलयुग से जोड़कर कदापि न देखे।
क्योकि मेरा मानना हैं कि ऐसा कालखंड कही विभक्त नही हैं।यदि ऐसा होता तो सतयुग मे दानव, राक्षस इत्यादि न होते,त्रेतायुग मे कहे तो धोबी से लेकर रावण की फौज ,न होती। द्वापर मे कंस कालयवन आदि आदि न होते आज की स्थिति मे भी देखे ,,
और फिर, औरो की छोडे अपने स्व को देखे आप की वृत्ति कैसी हैं।
विश्लेषण करेगे तो हर चरित्र को स्वयं मे पाएगे।
तो चलिए हमे हमारे उन प्रश्नो का उत्तर भी मिल गया कि वो क्यूं यह गुरु द्रोणाचार्य के पास गया हैं व क्या कहना चाहता हैं।
एक बात देखिएगा वो अंत तक कुछ वह न कह पाएगा जो आशंका से या जो वो कहना चाहता है व जो उसके दिल मे हैं इतना अपनी वासना के चलते अभिभूत हैं। व कहूं तो उससे ग्रसित हैं।।
जयश्रीकृष्ण ।जयश्रीकृष्ण। जयश्रीकृष्ण।।
विवेचक,
संदीप शर्मा।।
मिलते हैं फिर अगले श्लोको के साथ अगली बार। ।