जयश्रीकृष्ण ,जयश्रीकृष्ण, जयश्रीकृष्ण जी,, मित्रगण, सुधिजन, पाठकगण, व भक्तजन।।
राधे,राधे के मधुर बोल के साथ,
प्यारी सी जयश्रीकृष्ण।।
आदरणीय हम पूर्व मे "श्रीमदभागवत गीता जी "के प्रथम तीन श्लोको का समागम संदीप शर्मा कृत उनकी पूर्व की श्रृंखला "श्रीमदभागवत गीता जी पर सव के भाव " मे कर चुके हैं ,जो हमारे,, श्रीमदभागवत गीता जी के प्रथम अध्याय के "विषाद योग" से लिए गए हैं।
अब आज हम बढने जा रहे हैं,इसी कड़ी को आगे बढाते हुए पहले चौथे श्लोक की और। जो हैं,।।
""अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि,।
युयोधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथा।।""
अर्थ:- शब्दानुसार इसका अर्थ तो केवल यह है कि "इस विशाल सेना मे,अर्जुन या पांडवो की सेना मे,भीम,व अर्जुन, के ही समान युद्ध की इच्छा को युद्ध करने वाले,अनेक वीर धनुर्धर, यथा महारथी,युयुधान, विराट,तथा द्रुपद,,हैं।।""
अभी अगला श्लोक भी इसी की पूर्ती करता दिखता हैं।।
इससे पूर्व कि उसकी भी चर्चा करे चलिए पहले इसी श्लोक या कहे कृष्ण की मुख वाणी का रसास्वादन कर लेते हैं।।
:- सामान्य सा अर्थ तो केवल यह हैं कि "" यह सब सुयोधन ,जो अब दुर्योधन हो गया हैं,अपने गुरु,द्रोणाचार्य से मुखातिब हो कह रहा हैं कि उन पांडव पक्ष की सेना मे फला फला योद्दा,जिनके नाम भी गिना रहा हैं जैसे,भीम,अर्जुन, युयुधान, विराट व द्रुपद आदि महान शक्तिमान योद्दा हैं।।
बस श्लोक तो यही तक हैं ।
अब देखे शब्द तो यही कहते हैं।।
तात्पर्य लगाए भी तो और कितना,?
क्या यह सब काफी हो गया या और जोड ले,तो चलो थोडा और जोड लेते हैं।।
वो यह कि हालाकि द्रोणाचार्य के आगे कहा कोई भी योद्धा शक्तिमान था,वो भी धृष्टद्युम्न, आदि जो खास बाधक न थे,पर तब भी भय था अन्य उन जैसो से,जो बल आदि मे,भीम व अर्जुन के समान थे।और दुर्योधन को भीम व अर्जुन की शक्ति व बल का भी पूरा भान था।व ज्ञान था।।
इसीलिए तो वह अन्य योद्धाओं की तुलना इनसे करता हैं।।अब आप देखे कि कितना विस्तार हम ने इन शब्द के अर्थ का ले लिया पर क्या यह संपूर्ण हैं,,नही जी यह अभी भी पूर्ण नही,,मेरी मति नही मानती कि यह संपूर्ण हैं कारण दृश्य तो इससे भी कही आगे का संकेत कर रहे हैं।
तो आइए उस दृश्य को भी मेरे दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करे व उसके संदर्भ को समझे।।
अभी पूर्व मे" श्रीमदभागवत गीता "जी के कहे चौथे श्लोक की ही बात करे तो:-
अहा कितना प्यारा श्लोक हैं।।
अत्र शूरा महेष्वासा।।
अर्थात यहा जो महेश सा अर्थात, महान ईश्वर सा योद्धा, क्यू ईश्वर सा क्योकि ईश्वर कौन हैं जो धर्म के साथ है,जो धार्मिक हैं,धर्म क्या हैं हिन्दू मुस्लिम या कोई और,
अरे क्यू मजाक करते हैं यह तो धर्म है ही नही ,,फिर कौन सा धर्म,,स्नातक, सनातन जी नही वह भी नही तो फिर कौन सा धर्म। तो समझिए आदरणीय ,,
धर्म यानि जो काल,स्थान, लिंग, या कही भी कोई भेद न रखता हो,।।
तो ऐसा क्या हैं ? जो अभेद्य हैं।।
जो प्रमाण हैं परमात्म का ।।
तो वो है जी सिर्फ और सिर्फ ::- "सत्य " जी सत्य ही धर्म हैं ।।
इसी को किसी आवरण की कोई आवश्यकता नही ,,तो जो
" सत्य सा महान ईश्वर शक्ति से युक्त योद्धा एक और खडे हैं ,जिनके नाम दुर्योधन गिनवां रहा हैं व उनकी शक्ति से भी परिचित हैं कि वो कितनी ताकत रखते हैं।
महान ताकत, वो महान कैसे हो गए , कभी दृष्टि डाली इस पर आपने माननीय,,
थे तो वो वही मानुष ही न जो उसी के सताए थे,यदि सताए थे तो निर्बल रहे होगे, और यदि निर्बल ही थे तो ऐसा क्या हो गया कि आज वो वही मानुष युद्ध भूमि मे आकर खडे होते ही बल के प्रतीक बन गए।।
वो भी इतने कि स्व दुर्योधन जिसने उम्र भर उन्हे कुछ न समझा व हर दुख व चोट से उन्हे भयभीत रखा ,आज उनके यहा खडे होने पर बलवान मान रहा हैं,, और इतना ही नही उन्हे बलवान मानने के साथ ही साथ खुद स्वयं को कम भी ऑक रहा हैं,,
व वह खुद ही नही गुरु द्रोणाचार्य को भी इसका भान करवा रहा हैं।।
है न विषाद सा।।
तो माननीय समझे यह युयुधान, विराट द्रुपद इत्यादि जो भीम अर्जुन से बताए जा रहे हैं वो वो केवल इसलिए कि वो लाख सताए गए, लाख पीडा से गुजारे गए पर उन्होने कभी सत्य का मार्ग नही छोडा ।।
तो देखा आपने यह युद्ध सत्य व असत्य के बीच हैं ,सत्य जो महान ईश्वर सरीखा हैं ,और असत्य जो दुर्योधन का पर्याय कह ले तो अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा।।
है न कितना भयभीत आज युद्ध के मुहाने पर खडा यह दुर्योधन।।
सबको लगता है कि "श्रीमदभागवत गीता जी के विषाद योग के प्रथम अध्याय का नायक अर्जुन हैं "पर मेरा मत तो एकदम भिन्न हैं,।।
यहा अभी तक चौथे श्लोक को देखे तो किसको विषाद हैं?
कौन संतप्त हैं ?
भयभीत कौन हैं ?
क्या अर्जुन,,?
"नही नही माननीय अर्जुन तो स्वभाविक रुप से अपने स्वास्थ्य बौद्धिक कौशल लिए अपने स्वभाव का परिचय करा रहा हैं।"
यहा तो जो शकिंत हैं वो हैं दुर्योधन, न कि अर्जुन।।
वो इससे भी परे जो संयम रुपी संजय हैं वो 'धृष्टता लिए धृतराष्ट्र से रुबरु हैं'
वही उसके पोषित बीज को दुर्योधन रुपी वृक्ष को विशालकाय होने पर भी छोटी व निम्न सोच के कारण उसे व उसके समान बहुलांश को लघु किए हैं ।।
क्या पूछते हो कैसे?
या
इस पंक्ति के मायने ,,
अजी संदीप यानि मैरा मत तो यही हैं कि पांडव थे ही कितने मात्र सात अक्षौहिणी,,
जबकि दुर्योधन व धृतराष्ट्र रुपी धृष्टता कितनी थी ?
ग्यारह अक्षौहिणी,,।।
तो ग्यारह पर सात पड रहे है न भारी।।
तो संदीप का यहा यह सब विश्लेषण करने का मात्र मकसद भी यही है कि सत्य बहुत शक्तिमान व शक्तिशाली होता हैं।।
, झूठ की अंधेरी राते कितनी भी अमावस की सर्द घोर कालिमा लिए क्यूं न हो ,,
जब "सत्य का प्रकाश रुपी सूर्य चमकता हैं तो यह घोर काली कालिमा,ध्वस्त हो कही दिखाई नही देती,"
"सत्य का सामान्य प्रभाव ही ऐसा हैं कि वो विराट विशालकाय व विशेष लगने लगता हैं।।"
यहा देखे तो यही तो हो रहा है न सब।।
जिन सबको अपने पाप कर्म से लघु ,बौना कर डाला था वो आज उसकी विशालता के आगे बौना हुए जाता हैं।
कौन था अर्जुन ?
जिसे कभी दुर्योधन ने चैन का सांस नही लेने दी ।।
इधर भीम कौन था ?
जो दुर्योधन द्वारा ही अचेत कर ,सागर मे धकेल दिया गया।।
वो जो दुर्योधन के कारस्तानी के कारण भागे भागे फिरते रहे कभी इस ठौर तो कभी उस ठौर, जो समस्त भारत वर्ष को पांडव विहीन देखना चाहता था ,,वो उन्हे आज कह रहा हैं कि वह जानता हैं उनकी शक्ति को ,,
"जो अर्जुन व भीम सी ताकत लिए हैं"
तो क्या थी वो समर्थ या शक्ति व ताकत ?
तो आदरणीय वो और कुछ नही थी वो मात्र उनकी सच्चाई, अनुशासन, व नैतिक आचरण जो आज अंत के मात्र सत्रह दिन पूर्व दुर्योधन को इतनी विशाल लग रही हैं कि व भय से मरा जा रहा हैं।
हाय कैसी लघुता हैं ।जो प्रभुता को लघु किए हैं ।।
जिस धृत भूमि पर पापपूर्ण आचरण हावी रहा आज तिनके के समान उडने को हैं।।
अभी तो पांचवा श्लोक इसकी ही कडी हैं, जिसका समागम हम अगले भाग मे करेगे।।
तब तक जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण व राधे राधे।।
बने रहे संदीप के साथ,,
"श्रीमदभागवत गीता पर स्व के भाव " के साथ ।।
जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जी।।
'विवेचक,,
'"श्रीमदभागवत गीता जी"'
संदीप शर्मा।।
देहरादून उत्तराखंड से।।
(मौलिक रचनाकार, सर्वाधिकार सुरक्षित)