पिता का पितृत्व
पिता हूं,
बाहर से भले ही कठोर नजर आता हूं,
अंदर से मैं भी भावनाओं का दरिया रखता हूं!
ग्रस्थी की नीव हूं इसलिए अपना अस्तित्व अक्सर छुपा लेता हूं,
उसी नीव पर मजबूत इमारत खड़ी करता हूं!
कभी पिता,कभी भाई और कभी हमसफर बन हर किरदार निभाता हूं,
हर रिश्ते को प्रेम, आशीर्वाद, स्नेह व विश्वास की माला में पिरोता हूं!
कभी अपने ही बच्चो का गुरु कभी दोस्त बन भविष्य के लिए तैयार कर उनमें आशाओं के पंख़ लगाता हूं!
मानता हूं कामयाब पिता के पीछे अक्सर सपरिवार का भी हाथ होता है,
लेकिन परिवार की महत्ता, कामयाबी, संस्कार, नाम के पीछे पिता का भी हाथ है यह सुनने को तरसता हूं!
परिवार के चेहरे की मुस्कान देखने की खातिर खुद को ही भूल जाता हूं,
सभी की ख्वाहिशें पूरा करने को दिन-रात भटकता हूं,
दो वक्त की रोटी कमाने को,
अपनों से दूर भी चला जाता हूं!
आजीवन परेशानियों से जूझता हूं,
मगर अपनी बगिया के फूलों को हर कांटो से बचाता हूं!
फिर भी मै ही पत्थर दिल कहलाता हूं,
मुझे तो रोने का भी अधिकार नहीं,
मौन रहकर आंखों के सैलाब को कैद कर लेता हूं!
परिवार के लिए प्रेम का घट भर खुद
कभी-कभी प्यार के मरहम को तरसता हूं!
पिता हूं पर मैं भी जीवन के उतार-चढ़ाव में थक सा जाता हूं,
इंतजार करता हूं उस साथ की ..जो मुझे भी समझे,
क्यूंकि भले पिता हूं
पर दिल एक कोमल इंसान का ही रखता हूं।
पिता का ओहदा पाने के साथ साथ भावनाओ को तरसता हूं, हां मैं पिता हूं।