बात निकली ही है तो गोया दूर तलक जाएगी,
क़िस्सागोई की आदत हमसे तो ना छूट पायेगी।
तो हुज़ूर गौर फरमाये ....
डुगडुगी बजी जोर से, एलान हुआ शोर से। चुनाव की रैली में, हमारी शैली में, आपको आना है मान्यवर, लेकर वोट हथेली में। हमने सुना, तो अचंभा हुआ। चीनियों की कारस्तानी से अभी उभरे तो नहीं थे, की अपनों ने ही कारस्तानियाँ शुरू कर दी। कल तक घर में बैठे रहने का उपदेश और आज रैली में चलने का सन्देश !! क्या बात है बाबू रमेश !! अब ये मत पूछियेगा बाबू रमेश कौन है? अच्छा चलिए इतना याराना हो ही गया है तो बताए देते हैं। हमारे इलाके की पार्टी के अध्यक्ष हैं। अब पार्टी ना पूछियेगा? ना ही पक्ष और ना ही विपक्ष। चार चमचों को लेकर अपनी ही कोई पार्टी बना के खड़े हैं। मंत्री से लेकर संत्री तक, सबको जेब में लिये चलते हैं। पहले किसी बड़ी कंपनी में थे। सो कंपनी के काम की ख़ातिर सांठ-गाँठ किया करते थे। अब कंपनी छोड़ के वही ताल्लुक़ात भुनाने में लगे हैं। जन सेवा की आड़ में ख़ूब मेवा बटोर रहे हैं। क़ाबिले गौर बात ये नहीं की वो क्या करते है? गौर फरमाने लायक बात ये है की आजकल वे कहाँ रहते हैं ? उनका ज़िक्र इसलिए आया, क्यूंकि कल तक जो हर मोड़, नुक्कड़ पर टेबल सजा के लोगो की मदद करने का वादा देते थे, आज ख़ुद ही नदारद है। हर मौके को भुनाने में विशारद रखने वाले, पूरे कोरोना काल में एक झलक तक न दिखलाये, ताज्जुब होता है !!! ख़ैर छोड़िये I खुद नज़रबंद होंगे कोरोना के डर से, इसीलिए नहीं निकल रहे होंगे घर से I इन आया राम, गया रामों से तो भगवान् ही बचाये।
वैसे एक बात बतलाये, आपको क्या लगता है ये चुनाव प्रसार की रैलियों में चारो तरफ अधिकतर मर्द ही क्यों काम करते नज़र आते हैं ? चाहे मंच हो या रैली, चाहे पुलिस या प्रेस चारों तरफ की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने वाले। क्या कहा ...?? मर्दों में प्रबंधन की कला होती हैं !! अजी हाँ ... हमारी बला से। मर्द होने के नाते बता रहे है ... भाई साहब, घर अव्यवस्थित हो तो घर से बाहर व्यवस्था सँभालने में ही भलाई है। अंदर की एक और बात बतायें, ये चुनाव नहीं बल्कि व्यथित पतियों को थोड़ी देर की राहत दिलाने का प्रयास है। कोरोना डायरी के पिछले अंक “पत्नी पुराण” मे आपको बताया था ना, बस वही। पतियों को कोरोना से डर नहीं लगता साहब, पत्नी से लगता है !! चुनाव के बहाने ही सही, कुछ देर घर से बाहर तो रहेंगे। चार-पाँच डंडे पड़ भी गए तो क्या होगा ? बस इसी कारणवश नेताजी से लेकर कार्यकर्ता जी सब डटे है मैदान में, बंदोबस्त चाक-चौबंद। खैर हमे क्या, हम तो घर में बंद है और टी. वी. के सामने बैठे रज़ामंद हैं। ये न्यूज़ वाले भी लगता है अपनी बीवियों के सताए हैं। तभी दिन भर अपने दफ्तर में बैठ के एक ही ख़बर अलग-अलग ढंग से वाचते रहते हैं। मज़ाल है जो एक बार भी कोई घर जाने की ज़िद करे। दो तीन घंटा ओवरटाइम तो ख़ुशी-ख़ुशी दिल से कर देते हैं। वो भी बिना किसी माँग के, बशर्ते घर जाने को न कहो। घर की लुगाई से ज़्यादा बेहतर है, ऑफिस में लगी शेरा वाली माई, जिसकी फोटो की छत्रो-छाया में बैठे रहने में ही है भलाई। दिन भर की झिकझिक से थोड़ी देर बचने के वास्ते, हम निकल लिए ख़बरों के रास्ते। आसन जमाया और टी. वी. लगाया। बैठ गए बुध्दू बक्से के सामने रिमोट थाम के। रिमोट की दुखती नसों को दबाते जा रहे थे और एक जगह टिकने से कतराते जा रहे थे । हमे कोसते-कोसते रिमोट बिचारा भी बेहोश हो गया। हमें लगा ऐसे कैसे हो गया ? प्राइम टाइम में रिमोट की इतनी मजाल, खीँच ना दें इसकी खाल !! हथेलियों पर मार-मार कर उसे होश में लाये और फिर रहमो-करम दिखाते हुए उँगलियों के पोरो से मालिश दिलवाये। हमारे और रिमोट के बीच मची, इस संगीन तनातनी से और हमारी तनाशाही से रिमोट को निजात दिलाई सामने से आती एक खबर ने। खबर भी दिलचस्प थी, तो हमारी आँखें टीवी पर और उंगलियां रिमोट पर टिक गई। रिमोट ने भी कर्राहते हुए राहत की सांस ली।
हुआ कुछ यूँ था कि हमारे शहर लखनऊ, जी हाँ ... नवाबों के शहर लखनऊ में, फिर किसी टैक्सी वाले ने नवाबियत दिखाई और उसकी जमके हुई धुनाई। पूजा करके परशाद बाटने की परंपरा तब से है हमारे शहर में जब इसे “लक्ष्मणपुरी” नाम से जानते थे या फिर और भी पहले से I जब शहर के संस्थापक लक्ष्मण जी ने शूपणखा की नाक काटी थी। ख़ैर, वो ज़माना और था, ये जनाना और। सो परंपरा का निर्वाह पूरे जी जान से किया था, किसी कुमसुम कुमारी ने । वो भी सरे आम, बीच बजरिया, लाल बत्ती पर ट्रैफ़िक रुकवा कर I बात भी बनी और बात का बतंगड़ भी I न्यूज़ चली और चलते-चलते चली गई। मगर हमे सोचने पर मजबूर कर गई। “अबला नारी, वो भी एक बबला पे भारी, वाह नारी शक्ति क्या बात है तुम्हारी !!” - सोचते-सोचते हमने दाद देने की मुद्रा बनाई ही थी की तभी बगल से तेज़ आवाज़ आई – “शाबाश !! ये हुई न बात I” इस आवाज़ से हमारी दिल की धड़कने रुकते-रुकते फिर चल पड़ी थी। बगल में छुरी के साथ एक परात जो आ धरी थी। आ धमकी थी वो, जो कहने को तो धर्म से हमारी पत्नी और मिज़ाज़ से बिलकुल बेबाक जटनी थी। जिन्हे बनानी चटनी थी I “अरे, अरे ... हमारी नहीं भई I आप लोग भी, कुछ भी सोच लेते हैं। धनिये की भई ... धनिये की चटनी।“
देखिये ज़रा, खबर चलते-चलते कहाँ तक चली गई थी I रसोई में इतनी चटपटी खबर सुन कर, धनिया काटने और टीवी देखने का काम इकठ्ठा ही निबटाने की सोची उन्होंने। सो रसोई से निकल सोफे पर डेरा जमाया और रिमोट हमसे छीन कर, वापस न्यूज़ चैनल लगाया। उस लड़की की तारीफ करते-करते थक नहीं रही थी और टैक्सी वाले लड़के को कोस रही थी। कनखियों से बीच-बीच मे हमे भी देख रही थी ... मानो उस टैक्सी वाले लड़के को प्रेरणा हमीं से मिली हो। खैर, हम बोलते भी तो क्या ? चाहे दिन हो या रात, मर्द ज़ात की क्या ही बिसात।तो साहब ... कुछ यूँ हमारा दिन बीता I रात आई, सोने से पहले हमने ली अंगड़ाई। ज़ोर से जम्हाई के साथ “हरी ॐ” का जयकारा लगाते हुए पसर गए। निंदासी अँखियन को पलकों से ढांप, कुछ सोच विचार करते हुए नींद के आगोश में समां गए।
- शिवम् 'बानगी'