सादा पेज था
तुम्हारे पास भी
पर तुम्हें भी पता नहीं चला
कि कितने शब्द उसमें छप चुके हैं
एक शब्द नौकरी का है
दूसरा सामाजिक डर का
कुछ धार्मिक संस्कार के
तो कुछ अपने अपमान के
कुछ किसी विशेष जाति के
तो कुछ नैतिक विश्वास के
खुद से ही तुम पूंछो न!
अंत: करण में अपने डूब के
कि मैं हूं कौन?
तब चलेगा पता तुम्हें
कि मैं वो नहीं जो आया था स्वतंत्र
इस जहां में
जो खुद बनायेगा अपना उद्देश्य
समाज होता कौन है बताने वाला?
सच! में
हमें वस्तु बनाया जाता है
इस सामाजिक कंपनी में
पूंजी से पूंजी कमाने को
इसलिए मैं परेशान हूं
और तुम भी होगे कहीं न कहीं
तुम कट्टर सांम्प्रदायिक हो
इसमें गलती तुम्हारी नहीं
क्युंकि तुम तो एक वस्तु हो
गर व्यक्ति होते तो कट्टर न होते
क्युंकि तब तुम तार्किक होते
तुम समाज से डरते हो!
जो अमूर्त है
जिसका प्रतिनिधित्व करते हैं लोग
अर्थात् तुम लोगों से डरते हो
जो खुद डरे होते हैं
क्युंकि वो भी तुम्हारी तरह
वस्तु होते हैं
तुम अपने वर्ग/ जाति पर
करते हो गर्व
जिसमें तुम्हारा तुक्के से
हो गया था जन्म
पर यदि वह वर्ग / जाति
समाज में सबसे निचला होता
तब क्या तुम्हे होता गर्व?
" प्रेमसागर "