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भाग जाना पुरुषार्थ तो नहीं माना जा सकता ! (आलेख)

16 July 2023

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           विपरीत विकट परिस्थितियों में रहना, उन पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा करना, विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए संघर्षरत होने को ही पुरुषोत्तम पुरषों का पुरुषार्थ माना जाता है और उपरोक्त परिस्थितियों की चुनौतियों से भाग जाने को ही कायरता की संज्ञा दी जाती है। भाग जाना पुरूषार्थ नहीं माना जा सकता। पृथ्वी गोल है और भागने के लिए कहीं कोई दुसरा सिरा नहीं। डट कर विपत्तियों का सामना करना ही वास्तव में सच्चा पुरूषार्थ है जिसे अतिश्योक्ति नहीं कहा जा सकता। यह कड़वा सच है। चूंकि मृत्यु अटल है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक ही नहीं बल्कि विश्व के किसी भी कोने में विस्थापित होने से टल नहीं सकती। अर्थात मृत्यु आनी ही आनी है। जो पूर्णतः सुनिश्चित है। चूंकि युगों-युगों का इतिहास साक्षी है कि मृत्यु से कोई भी नहीं बच पाया है। जो जन्मा है वह अवश्य मरा भी है। 
           परन्तु मृत्यु-मृत्यु में अंतर होता है। एक मृत्यु मृत्युपरांत "कायरता" की संज्ञा देती है और दूसरी मृत्यु मृत्युपरांत "पुरुषार्थ" का उदाहरण प्रस्तुत करती है। अर्थात पीठ पर खाई गोली भी प्राण निकलती है और छाती पर खाई गोली भी प्राण ही निकालती है। परन्तु दोनों के सामाजिक परिवेश भिन्न-भिन्न माने जाते हैं। एक  को मौत के डर से भागते हुए डरपोक कहलाती है और दूसरे को निडरतापूर्वक लोहा लेते हुए वीरतापूर्वक वीरगति को प्राप्त कहलाती है। चूंकि पीठ पर गोली भागने का प्रमाण माना जाता है और छाती पर गोली खाना साहस का प्रतीक माना जाता है। जबकि युद्धक्षेत्र में मृत्यु के तांडव नृत्य का प्रत्यक्षदर्शी कोई भी नहीं होता। परन्तु सामाजिक दृष्टिकोण यही दर्शाता है। 
           इसमें कोई संदेह नहीं है कि हम भी भारत-पाक युद्धों में 1947, 1965 और 1971 में पीछे हटे थे और शरणार्थियों के रूप में पंचतत्वों में मिलने से पहले हमारे पूर्वज मनावर-छम्ब जाना चाहते थे। हम उन्हीं पूर्वजों के समस्त वंशज आज भी अपने जन्मस्थान पर जाने के लिए हार्दिक इच्छुक हैं। जिसके उदाहरणार्थ हमारे एक युवा ने अपनी युवावस्था से ही सौगंध खा रखी है कि वह खाना तब खाएंगे जब वह अपने पूर्वजों की खेती योग्य भूमि पर छम्ब क्षेत्र के "कानी" नामक गांव में अपने हाथों से हल जोतकर अन्न उगाएंगे और उसके उपरांत उसी अन्न के आटे का खाना अपने हाथों से पकाकर खाएंगे। उस युवक को ज्यौड़ियां खौड़ में "बाबा भारती" के नाम से जाना व पहचाना जाता है। जिनकी वास्तविकता यह है कि वह इसी आशा में अब अपनी दाढ़ी सफेद कर चुके हैं और गृहस्थ सन्यासी के रूप में श्वेत रंग के वस्त्र धारण करते हुए अपने वचन पर अडिग ही नहीं बल्कि भीष्म प्रतिज्ञाबद्ध हैं। जिनपर राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोध होना अत्यंत आवश्यक एवं न्यायिक दृष्टिकोण से अनिवार्य भी है। क्योंकि बाबा भारती विस्थापन को व्यापार न मानते हुए अभिशाप मानते हैं। ऐसी प्रतिज्ञाबद्ध विभूति के स्वर्गीय माताश्री व पिताश्री ने उनका नाम "अमृत भूषण भारती" रखा था। 
           ऐसे में कश्मीरी विस्थापन को पीढ़ियों की पीड़ा दर्शाना और उनका पुनर्वास नहीं करना कश्मीरी पंडितों पर ही नहीं बल्कि भारत सरकार पर भी कहीं न कहीं प्रश्नचिन्ह लगाता है। क्योंकि पाक अधिकृत कश्मीर को प्राप्त करने का दावा करने वाली सशक्त सरकार कश्मीरी पंडितों के तेंतीस वर्षीय "विस्थापन" का पुनर्वास क्यों नहीं कर रही एक बड़ा प्रश्न है? प्रश्न स्वाभाविक भी है कि वर्तमान साहसिक केन्द्र सरकार कश्मीरी पंडितों को विस्थापन के कलंकित जीवन से निजात दिलाकर इतिहासिक कीर्तिमान क्यों नहीं बना रही? जबकि सकारात्मक आशावादी कथन यह है कि  "मोदी हैं तो मुमकिन है। जय हिंद। सम्माननीयों ॐ शांति ॐ

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