निखर उठा था मुझमें मेरे अभिमान का भान
इसीलिए अब नहीं गूंजती मुझमें मेरी तनहाई
शब्द रूठने लगे हैं अब तो मुझसे
कुछ तो घटा है भीतर अंतस में कहीं
यूं ही नहीं बिखरती है शब्द भंगिमा
कुछ तो हटा है टूट कर भीतर कहीं
अब तो बिछड़ने लगीं हैं मुझसे संवेदनाएं भी
कुछ तो बिखरा है टूट कर इस अंतर्मन
क्यों न खुद को खुद से ही अलग कर लें
शायद फिर गूंज उठे मुझमें मेरी तनहाई
⬛ कृष्ण स्वरूप