मेरी कलम से✍️
फर्क पड़ता है.....
**********************
मुझे फर्क नहीं पड़ता.....
अज़ानों और प्रार्थनाओ से
मंदिर ,मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों से
अपने पापों के प्रायश्चित के लिए
स्वयं से गढ़े गए अल्लाह और भगवान से
मेरी अश्क़ से लबरेज़ आंखों के कोरों पर
एक कतरा लहू उतर आता है........
जब एक बेबस माँ को देखता हूँ
अपने बच्चे के दूध के लिए बेचते हुए तन
भूखे भेड़ियों को परोसते निर्जीव सा
बदन
हाँ... मुझे फ़र्क पड़ता है....
जब मैं देखता हूँ...
भूख से बिलबिलाते चीथड़ों में लिपटे
लोकतंत्र के भविष्य को कूड़ा बीनते
पेट की आग को बुझाने के लिए
कुत्ते के मुँह से रोटियाँ छीनते
हाँ... मैं आंदोलित होता हूँ
मिथ्या नियमों और कानूनों पर थूकता हूँ
जब देखता हूँ....
एक नाकारा नशेड़ी पति
समाज की थोथी दलीलों की आड़ लेकर
कथित रूप से समतुल्य पत्नी पर
अपनी सम्प्रभुता के दम्भ के बल पर
लाठियां और गालियाँ चलाता है
उसकी गाढ़ी कमाई को शराब और जुए में उड़ाता है
मुझे क्षोभ होता है....
जब किसी हठधर्मी शासक के द्वारा
उठाये गए गलत कदम को भी लोग सही ठहराते हैं
उसके अलोकतांत्रिक कार्यों की भर्त्सना करने पर
देशद्रोही का तमगा ईनाम में दे जाते हैं
मैं द्रवित होता हूँ....
जब चार बच्चों को पेट काटकर पालने वाले माँ बाप
उपेक्षा का शिकार होकर दूसरों में अपना सहारा ढूढ़ते हैं
जीवन के नंगे सच को ज़ब्त करने का इशारा ढूढ़ते हैं
बेटों और बहुओं के रहते फुटपाथ पर सोने का गुजारा ढूढ़ते हैं
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा देखता हूँ...
विश्व के महानतम लोकतंत्र का एक बड़ा हिस्सा
मंदिरों, मस्जिदों, गुरूद्वारों की सीढ़ियों पर कतार में खड़ा
कटोरे में आये भीख के पैसों से करता नशा बड़े से बड़ा
मेरी विस्फारित आँखे और फैल जाती हैं..
जब देखता हूँ
माँ बाप के सपनों को धूल धूसरित करते बच्चों को
घर से सुदूर भविष्य संवारने आये अक्ल के कच्चो को
फेमिनिज़्म के नाम पर फटी जींस के भौंड़े वेशभूषा को
आधुनिकता के हवन में होम कर रही
अपनी कौमार्य मंजूषा को
🙏🙏 सतीश मोदनवाल🙏🙏