संभलता रहा फिसलता रहा
और वक्त के इशारों पे ढलता रहा
कितनी ठोकरें खायीं थी मैंने सफ़र में
मग़र इरादे थे मज़बूत मैं चलता रहा
ख्वाहिशें मिटा दीं कुछ ख़्यालों से अपने
कुछ ख्वाहिशों की ख़ातिर मचलता रहा
शोलों के साये पे सोया था मैं
कांटो के रस्ते पे चलता रहा
कभी बेख़बर यूँ ही सोता रहा
कभी बेसब्र हो टहलता रहा
रौंद कर मैं जमाने के उल्टे उसूल
मैं कितनों के ग़ुरूर को कुचलता रहा
कुछ ख्वाहिश जला दी हाथों से अपने
कुछ ख्वाहिश की ख़ातिर मैं जलता रहा
वक़्त भी वक़्त पे बदलता है जैसे
मैं ख़ुद को भी वैसे बदलता रहा
जम गया कभी मैं अपने ही ग़म में
तो कभी ख़ुशियों में पिघलता रहा
अक्सर ही रहा है अंधेरा सा दिल में
जो सूरज था हमेशा जो ढलता रहा
ख़ुशियाँ तो मैंने ग़ैरों को दे दी
बस ख़ुद के ग़मों में बिखरता रहा
कतरा जो छूटा इन आँखों से मेरी
वो बनके ग़ज़ल में निखरता रहा