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संभलता रहा फिसलता रहा

29 January 2024

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संभलता रहा फिसलता रहा

और वक्त के इशारों पे ढलता रहा 

कितनी ठोकरें खायीं थी मैंने सफ़र में

मग़र इरादे थे मज़बूत मैं चलता रहा 

ख्वाहिशें मिटा दीं कुछ ख़्यालों से अपने 

कुछ ख्वाहिशों की ख़ातिर मचलता रहा 

शोलों के साये पे सोया था मैं 

कांटो के रस्ते पे चलता रहा 

कभी बेख़बर यूँ ही सोता रहा 

कभी बेसब्र हो टहलता रहा 

रौंद कर मैं जमाने के उल्टे उसूल 

मैं कितनों के ग़ुरूर को कुचलता रहा 

कुछ ख्वाहिश जला दी हाथों से अपने 

कुछ ख्वाहिश  की ख़ातिर मैं जलता रहा 

वक़्त भी वक़्त पे बदलता है जैसे 

मैं ख़ुद को भी वैसे बदलता रहा 

जम गया कभी मैं अपने ही ग़म में 

तो कभी ख़ुशियों में पिघलता रहा 

अक्सर ही रहा है अंधेरा सा दिल में

जो सूरज था हमेशा जो ढलता रहा 

ख़ुशियाँ तो मैंने ग़ैरों को दे दी

बस ख़ुद के ग़मों में बिखरता रहा 

कतरा जो छूटा इन आँखों से मेरी

वो बनके ग़ज़ल में निखरता रहा 

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fanindra's Diary
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लिखना तो चाह रहा हूँ सब कुछ मगर कुछ बातें हैं जो बयां नहीं हो सकतीं इसलिए कुछ अल्फ़ाज़ों में अपने अन्दाज़ से कुछ लिख रहा हूँ और मेरे ख़्याल से इतना ही काफ़ी हैं अगर पढ़ने में दिलचस्पी है आपकी मैं हूँ फणींद्र भारद्वाज जयपुर राजस्थान से जिसे आप गुलाबी नगर से भी जानते हैं लिखने का शौक़ है और कुछ खामोशियों की ज़िद्द भी है लफ्जों में उतरने की इसलिए लिखता हूँ क्योंकि ख्वाहिशें तो मार दिन बहुत कम से कम इन खामोशियों को बचा लूँ बस इस लिये इन्हें अल्फ़ाज़ों के ज़रिए काग़ज़ों पर उतार रहा हूँ उम्मीद है कि कोई पढ़ेगा ज़रूर मेरी खामोशियों की चीख को
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29 January 2024
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संभलता रहा फिसलता रहा

29 January 2024
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संभलता रहा फिसलता रहा और वक्त के इशारों पे ढलता रहा  कितनी ठोकरें खायीं थी मैंने सफ़र में मग़र इरादे थे मज़बूत मैं चलता रहा  ख्वाहिशें मिटा दीं कुछ ख़्यालों से अपने  कुछ ख्वाहिशों की ख़ातिर मचलता

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