लेखक:–जगदीश जी शर्मा (विदेह)
साबुन से तन धोने वालो, मन को तन से धो डालो तो
एक विराट जन्म ले लेगा, लगुता की सीमाओ में भी
पतझड़ को आश्वासन देकर या बसंत को निर्वासन
आशाओं के तीर बांदते फिरते ये आवारा बादल
दर्पण को तो खुशी दे दी, मन को दे दी कंजूसी
तुमने कितने दर्द उगाए, रखने अपनी हसी खुशी
मन के रंग महल में कोई वैरागी दीप जलाओ तो
एक बूंद में बंद जाएगी सागर की सीमाये भी |
तुमने दरिया बांध लिया तो उनके पन गत का क्या होगा,
तुमने चंदा साध लिया तो, उनके पूनम का क्या होगा
चंदा से मांग भरो मावस की, दुखती रंग को खुशहाली
और अंधेरे के घर भेजो कुछ किरने चांदी वाली
अपने कलाकार हाथो को श्रम का पाठ पढ़ाओ तो
एक बार में बंद जाएगी सदियो की सीमाएं भी,
जीवन की फटी चदरिया पर तुमने कितने पैबंद लगाये
आशाओं के खुदरेपन में तुमने कितने जन्म गँवाये,
परचूनी बातों से मन का रिश्ता हुआ नहीं करता है
नम के तारे गिनने से दिन उजला हुआ नहीं करता है,
अपनी आंखों की पहरेदारी अपने तक बैठाओ तो
सच कहता हूँ ज्योति-पर्व से सजजाएंगी गलियां भी
किसी आँख में जादू टोना, किसी आँख का सूना कोना
कहीं खुशी की बंदनवारे किसी द्वार पर रोना- धोना
आशाओं के पनघट को कितनी इच्छाएँ नाप गयी
इधर कुआरी अभिलाषा मरघट की देहरी नाप गयी।
तन की भूख मिटाने वालों मन की खाज मिटाओ तो
सच कहता हु - मिट जाएगी मन - बंधन की काराए भी
एक स्वार्थ के खातिर तुमने ये कितने तम्बू बनवाये
किसी भरे-पूरे आँगन में अंधियारी के झाड़ लगाये
एक ओर भूखे बनजारे, आंतडियों से सड़क नापते
और तुम्हारी मंजिल पर तुमने गंधों के गाँव सजाये
यदि महलों की गधों को कुटियों तक ले जाओ तो
सच कहता हूँ प्रेम-डोर में बंध जाये मानवता भी।