कहानी - और वह जीत गई
****************************'' अरे सरला सुनती हो क्या? कितनी देर से आवाज लगा रही हूँ तुझे करमजली ?'' सरला की सौतेली माँ ने उसे आवाज लगाते हुए कहा। '' आई माँ, मैं मेरी स्कूल ड्रैस धो रही थी। स्नानघर में आपकी आवाज सुनाई नहीं दी। '' सरला ने सहज भाव से कहा। '' क्यों रे मनहूस? कानों में तेल डालकर रखती हो क्या, जो सुनाई नहीं दिया?''ऐसी चुभती बातें सुनना अब सरला के लिए सामान्य बात हो चुकी थी।'सरला' अपने नाम के अनुरूप ही सरल स्वभाव की लड़की थी। मगर पता नहीं किसी पूर्व जन्म के पापों की सजा थी या कुछ और कारण, सरला के जीवन में कष्ट ही कष्ट थे। उसके जन्म के समय ही उसकी माँ का देहांत हो गया था। दादी ने ही उसे ऊपर के दूध के सहारे पाला था। मगर शायद ईश्वर को उसके सिर से दादी का साया भी इतने ही दिन रखना था जब वह डेढ़ साल की थी तभी दादी भी इस संसार से विदा हो गई। उधर उसकी माँ की मृत्यु को एक साल ही हुआ था कि उसके पिता ने दूसरी शादी रचा ली थी। और जो सौतेली माँ बनकर उस घर में आयी थी वह उसके लिए माँ नहीं एक मुसीबत बनकर आई थी। वह जब 3 साल की हुई तभी से उसकी इस सौतेली माँ ने उससे एक घरेलू नौकर का काम लेना शुरू कर दिया था। उसे बर्तन मांजना सिखा दिया था। मगर हाँ एक अच्छी बात यह रही कि उसने सरला को स्कूल भेजने से मना नहीं किया। फलस्वरूप उसे वहाँ के सरकारी बालिका विद्यालय में भेज दिया गया। स्कूल जाने से पहले सरला को घर का झाड़ू-पौंछा करके रात के झूठे बर्तन साफ करके जाना पड़ता था। कई बार तो इस कारण उसे स्कूल पहुँचने में देर भी हो जाती थी मगर अब लगभग उसकी प्रत्येक अध्यापिका को उसकी मजबूरी मालूम थी इसलिए वे उसे ज्यादा कुछ नहीं कहती थी। वह जैसे ही घर लौट कर आती, उसको सुबह के खाने के झूठे बर्तन साफ करने होते थे। अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करते करते कई बार तो उसे अपना गृहकार्य पूरा करने का समय भी नहीं मिलता था। और उसे दूसरे दिन सजा के तौर पर कक्षा के बाहर बैठ कर उस कार्य को पूरा करना पड़ता था।जब उसके दो सौतेले भाई-बहिन हो चुके थे तब उस पर काम को बोझ और बढ़ गया था। उनको नहलाने के लिए गर्म पानी करना, उनको भोजन खिलाना, कपड़े बदलना जैसे कई काम उस मासूम को करने पड़ते थे पर न कोई शिकायत और न कोई सवाल जबाब ! और बेचारी करती भी तो किससे करती ? उसके पिता ने तो जैसे आंखें मूंद ली थी। वो सब कुछ जानते हुए भी चुप थे। एक दो बार उन्होंने सरला को अपनी सौतेली माँ के हाथों पिटते भी देख लिया था, मगर उनके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। उस घर में अगर सरला का कोई हितैषी था तो वह थी उसकी बुआ अर्पिता। वह अपने परिवार सहित कलकत्ता रहती थी। उसके फूफा जी एक बड़े उद्योगपति थे। घर में नौकर-चाकर, गाड़ी सब कुछ था। अर्पिता अधिकतर साल में एक बार रक्षाबंधन पर ही आती थी। वह जब भी आती थी अपने साथ सरला के लिए 2-3 नयी ड्रैस, फल और मेवे लेकर आती थी। वह अपने बच्चों के छोटे हो चुके कपड़े भी ले आती थी। वह सरला को एकांत में बुलाकर पूछती थी कि उसको कोई तकलीफ तो नहीं? मगर न जाने क्या सोचकर सरला उन्हें कह देती, '' नहीं बुआजी, कोई तकलीफ नहीं है।'' अब बिना बताये तो बेचारी बुआ भी क्या करे?जब सरला 9 वीं कक्षा में थी तभी उसके साथ एक ऐसी अनहोनी घटना घटित हुई जिसने उसके जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल दी। जब वह स्कूल से पैदल ही घर लौट रही थी तभी पीछे से तेज गति से आ रही एक कार उसको कुचलते हुए निकल गई। और यह दुर्घटना इतनी जबरदस्त थी कि उसकी जांघों के नीचे का सारा हिस्सा अपंग हो गया था। डॉक्टर ने कहा था कि वह अब कभी नहीं चल-फिर सकेगी। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए उसकी सौतेली माँ ने धीरे से उसके पिता से कहा था, '' इससे अच्छा तो यह मर ही जाती ! अब इसको सारी उम्र कैसे भुगतेंगे? '' यह बात सरला ने खुद अपने कानों से सुनी थी इसलिए अब वह अपने भाग्य को कोसते हुए ईश्वर से मौत मांगती रहती थी। दुर्घटना के लगभग 15 दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई। जब तक वहाँ आसपास के लोग और रिश्तेदार उससे मिलने आते रहे तब तक तो उसको देख दिखावे के लिए समय पर खाना, पानी और दवाई देते रहे लेकिन जैसे ही उनका आना बंद हुआ वह अपने बिस्तर पर भूखी-प्यासी पड़ी रहती थी। किसी को याद आ जाता तो उसको दे आते अन्यथा वह बिलबिलाती रहती। अस्पताल से लाने के बाद उसने अपने पिता के तो दर्शन भी नहीं किये थे। अब उसके लिए यह भूख-प्यास और दर्द असहनीय हो चला था। एक दिन जून के अंत में सुबह-सुबह जैसे ही उसकी नजर अपनी माँ के फोटो पर पड़ी तो उसकी रुलाई फूट पड़ी और वह रोते हुए कहने लगी, ''हे माँ तुम कैसी माँ हो? क्या तुम्हें अपनी बेटी पर जरा भी तरस नहीं आता है? तुम मुझे यहाँ क्यों छोड़ गयी? प्लीज माँ अब मुझे भी अपने पास बुला लो।" न जाने कितनी देर वो रोती रही तभी उसकी सौतेली माँ आ गई, उसने तुरंत अपने आंसू पोछे। उस पर गरजते हुए उसकी सौतेली माँ ने कहा," मनहूस तुझसे तो मौत भी हार गई ! तेरी माँ मेरी छाती पर तुझे न जाने क्यों छोड़ गयी? बोल, क्यों रो रही थी रे डायन?"सकपकाते हुए रुंधे गले से सरला ने कहा, "कुछ नहीं माँ... वो मुझे भूख लगी थी। "इस पर बिगड़ते हुए उस बेरहम, बेदिल औरत ने फिर कहा, "अरे करमजली तेरा यह पेट है या कोठ्यार? पडे़-पडे़ भी तुझे इतनी भूख कहाँ से लगती है? और हाँ सुन आज तेरी बुआ तुझसे मिलने आ रही है। अगर तुने हमारे लिए एक शब्द भी उल्टा सीधा बोला या अपना रोना रोया ना तो बुआ के जाते ही तेरी ऐसी दुर्गति करुंगी कि तू जिंदगी भर याद रखेगी। समझी? "सरला ने धीरे से कहा,"ठीक है।"बुआ के आने की खबर सुनकर सरला को बहुत खुशी हुई। दोपहर में जब बुआ आई तो आते ही वह सबसे पहले सरला के कमरे में आई। और सरला को गले लगा लिया। सरला उससे यों लिपट गई ज्यों वर्षों बाद मायके लौटी कोई बेटी अपनी माँ से लिपटती है। सरला फूट-फूट कर रो रही थी और उसकी बुआ अर्पिता उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कह रही थी, "रो मत बेटा, तू देखना हम विधाता को भी हरा देंगे।'' सरला ने उसने तरफ इस तरह से देखा मानो पूछ रही हो, ''सच में बुआ ?" रात को खाने की मेज पर जब अर्पिता अपने भाई-भाभी के साथ भोजन करने के लिए बैठी तो उसने अपने भाई (सरला के पिता) से कहा, "भैया अगर आपको कोई आपत्ति न हो तो मैं सरला को मेरे साथ कलकत्ता ले जाऊँ।वहाँ मेरे नौकर इसकी अच्छी तरह देखभाल भी कर लेंगे और हो सका तो मैं इसकी पढा़ई भी चालू करवा दूँगी।" मानो सरला के पिता तो इसके लिए पहले से तैयार ही बैठे थे। उन्होंने तुरंत कहा, "अरे यह भी भला कोई मुझसे पूछने की बात है? सरला पर जितना अधिकार मेरा है उतना ही तुम्हारा भी है। आखिर तुम इसकी बुआ हो और उसका बुरा थोड़े ही सोचोगी।" अगले दिन सुबह ही सरला अपनी बुआ के साथ उनकी आलिशान कार में कलकत्ता के लिए रवाना हुई। कार में जाते समय उसे लग रहा था जैसे भगवान ने बुआ को उसकी माँ के रुप में ही भेजा है। कलकत्ता पहुँचते ही उसकी बुआ ने सबसे पहले अपने नौकरों बुलाकर सरला से उनका परिचय कराया और उनको हिदायत दी कि उन्हें इसकी हर जरूरत का ख्याल रखना होगा। समय पर बिना कहे चाय-नाश्ता और भोजन इसके कमरे में पहुँचाना होगा। इसके बाद उसने अपने देवर को बुलाया जो उस समय कलकत्ता में ही जिला शिक्षाधिकारी के पद पर कार्यरत थे। उनसे उसने उसकी पढ़ाई के विषय में राय ली। उनकी राय के मुताबिक ही सरला को सैकेण्डरी के ओपन बोर्ड का फार्म भरवा दिया और उसको घर आकर पढ़ाने के एक टीचर से ट्यूशन चालू करवा दी। उसकी बुआ के दोनों बेटे भी सुबह-शाम समय निकाल कर उसे पढा़ते थे। सरला ने मन लगाकर पढा़ई की और उस साल राज्य मेरिट में तीसरा स्थान हासिल किया। उसकी इस उपलब्धि पर राज्य कल्याण बोर्ड ने उसे ट्राई साइकिल भेंट की और उसकी छात्रवृत्ति चालू कर दी।अब सरला को जीवन सार्थक लगने लगा था। उसने और मन लगाकर पढ़ाई की और 2 साल बाद सीनियर सैकेण्डरी परीक्षा में राज्य मेरिट सूची में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इस बार राज्य स्तरीय सम्मेलन में स्वयं शिक्षा मंत्री ने उसे सम्मानित किया और विकलांगों वाली इलेक्ट्रॉनिक स्कूटी भेंट की। समाज कल्याण बोर्ड ने उसकी आगे की संपूर्ण शिक्षा का जिम्मा ले लिया था। तीन साल बाद उसने फिर से कालेज टाॅप करके शाबाशी बटोरी थी। अब उसकी इच्छा आई ए एस अधिकारी बनने की थी। जब उसने बुआ से इसका जिक्र किया तो बुआ ने खुश होते हुए कहा,"तुम जो भी करना चाहो करो बेटा। तुम कर सकती हो तथा मेरा आशीर्वाद और सहयोग हमेशा तुम्हारे साथ है।" "बस यही चाहिए बुआ ! आपका आशीर्वाद ही तो मेरा संबल है। " सरला ने कृतज्ञ भाव से कहा था। अब सरला ने अपना पूरा ध्यान अपने लक्ष्य पर केन्द्रित कर दिया था। उसके फूफा जी ने उसको नया लैपटॉप लाकर दे दिया था ताकि उसे इंटरनेट से भी पढ़ाई में मदद मिल सके। वह देर रात तक पढ़ाई करती थी। जब उसकी आई ए एस की मुख्य परीक्षा का परिणाम आया तो उसने राष्ट्रीय सूची में 10 वाँ स्थान हासिल किया था। और उसको यह खुशखबरी सुनाने वाली उसकी वही सौतेली माँ थी जिसे किसी समय उसका नाम भी नहीं सुहाता था। उसने उसकी बुआ को फोन पर इसकी सूचना दी थी और आग्रह किया कि उसकी बात सरला बिटिया से कराओ। आज वह बहुत खुश है। उसने सरला को शाबासी देते हुए कहा, "सरला बेटा तू तो कोहिनूर निकली। शाबास बेटा। बेटा मुझे माफ कर देना, मैंने अब तक तुझे कभी माँ का प्यार नहीं दिया।" "नहीं माँ, मैं आपको कभी दोषी नहीं मानती। यह सब मेरे भाग्य का ही खेल था।" सरला ने सहज भाव से कहा। "अरे बेटा, तुम कितनी महान हो। थैंक्स बेटा। हम इसी सप्ताह कलकत्ता आ रहे हैं तुझसे मिलने।"" ठीक है माँ।"सरला ने कहा और फोन काट दिया। इसके बाद तो सरला की बुआ और फूफा के मोबाइलों पर और लैंड लाइन फोन पर लगातार सरला के लिए बधाइयाँ आने लगी। जिन रिश्तेदारों और लोगों को सरला जानती भी नहीं थी, वे भी बधाई दे रहे थे। और शाम होते-होते तो उसकी बुआ के घर देश के बड़े-बड़े समाचार पत्रों के और टीवी चैनलों के रिपोर्टर्स का जमावड़ा हो चुका था। उनसे सरला ने साक्षात्कार में अपनी सफलता का श्रेय अपने बुआ-फूफा की प्रेरणा को और ईश्वर की कृपा को दिया था। सरला को सहायक जिलाधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया था और इसकी ट्रेनिंग के लिए भेज दिया गया था। उधर एक और आश्चर्य जनक घटना घटी। सरला के लिए उसके फूफा जी के एक रिश्तेदार ने शादी का प्रस्ताव रखा था और वह लड़का भी आई ए एस अफसर था और एक पैर से अपाहिज भी था। सरला से और उसके माता-पिता से विचार विमर्श के बाद उसके बुआ-फूफा ने रिश्ता पक्का कर दिया और शीघ्र ही शादी तय कर दी । शादी कलकत्ता में ही हुई। सरला के बुआ-फूफा ने ही कन्या दान किया। डोली में बिठाकर विदा करते समय उसकी सौतेली माँ उससे लिपट कर इस तरह रो रही थी मानो वह अपने सारे पाप धो रही हों।
✍️ स्वरचित @सूरज शर्मा 'मास्टरजी'
ग्राम-बिहारीपुरा, जिला-जयपुर, राजस्थान 303702