ये चीखती हुई बेज़ुबा सी हवाएं
आज कुछ इस कदर मेरे दर पे हैं आईं
ना जाने क्यू पहले मुझसे आंख मिचौली खेले है
मुझसे सीधे तो नहीं मेरे खिड़की मेरे, कलम किताबो से बोले हैं
इतना सब मै अपनी आंखो से देख रही थी, मेरी कुर्सी, मेरी मेज़ उनकी बातो से मुंह फेर रही थीं।।
फिर रहा ना गया मुझसे, मैंने भी इन हवाओं से पूछ लिया आखिर कहना क्या चाहती हो, फिज़ा हवाओं का बदलकर साबित करना क्या चाहते हो।।
कुछ देर तलक इन हवाओं ने बस मुझको सुना
मुझे यूं उनकी बाते समझता देख वो यूं भर सी गई
बारिश का सैलाब ले यूं सड़को पर बिखर सी गई
बोला हवाओं ने मुझसे बड़े सख़्त मिज़ाज में, मै आज़ाद हूं, अमाद हूं, बेशक यूं ज़ंजीरों से जुदा एक जीवंत खयालात हूं।।
पर आज की आबो हवा (लोगो का तन्हा पन) से मैं
पूछती ज़िक्र- दिल - ए हाल हूं।।
हां मैं चीखते मन की ख़ामोश आवाज़ हूं।।