रूठने पर झट से मना लेती थी
मां दवा से ज्यादा दुआ देती थी
कुछ बात थी उसके हाथों में जो
भूख ही पेट से वो चुरा लेती थी
चोट कितनी भी गहरी लगी क्यों न हो
फूंक कर झट से वो भगा देती थी
मां पढ़ी कम थी मेरी मगर
हर मर्ज की वो दवा देती थी
आंख से आंसू निकलते नहीं थे
आंचल वो झट से फिरा देती थी
कुछ कहता न था मैं लब से मगर
खिलौना वही वो दिला देती थी
मुंह अंधेरे भी निकलूं जो घर से अगर
उठ कर खाना वो झट से बना देती थी
बहस कितनी भी कर लूं उससे मगर
मुस्कुरा कर सब वो भुला देती थी
मां दवा से ज्यादा दुआ देती थी।