हारे हुए को और क्या हरा ओगे
तुम चाहकर भी मुझे न हासिल कर पाओगे
जिस राह पर अब मैं चली हूँ
उस राह पर तुम सिर्फ़ कांटों को भी पाओगे
मेरी मंजिल की प्यास को
तुम चाहकर भी ना भुजा पाओगे
रातों की निन्द को
मेरी तरह तुम ना उड़ा पाओगे
फूल जरुर हूँ मैं एक
लेकिन अब से मेरी हर दिशा में तुम कांटों का बसेरा पाओगे
हारे हुए को और क्या हरा ओगे||