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आत्महत्या : हत्या आत्मा की या ज़िन्दगी की ??

3 September 2022

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 आत्महत्या : हत्या आत्मा की या ज़िन्दगी की ?? 

  

कितनी ख़ुशी की बात है न, आज हम 21वीं शताब्दी में जी रहे हैं. आज तकनीक के मामले में हम आसमान की बुलंदियों को छूते चले जा रहे हैं. मिशन मंगल और मिशन चंद्रयान तक भी अब हमसे अछूता नहीं है. चाँद पर तो हम बहुत पह्ले ही जा चुके हैं, अब तो दूसरे ग्रहों तक भी सैर करने की तरफ हम अग्रसर हो रहे हैं. कुल मिलाकर कहें तो तरक्की की सबसे ऊँची चोटी को छूने के काबिल हम अपने आप को बना चुके हैं. फिर क्यों भारत, हमारा वही देश जो सबसे पह्ले मंगल तक पहुंचा; जहाँ से आयुर्वेद का जन्म हुआ, जहाँ लोग आज भी अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा को पूजते हैं, क्यों आज अपने ही भारत के युवा अपनी ही हत्या करने को मजबूर हो रहे हैं? 

  

विश्व स्वास्थ्य संगठन की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र में भारत में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है। जी हाँ, अपनी ज़िन्दगी अपने ही हाथों ख़त्म करने में हमारे देश के लोग सबसे आगे हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट में आत्महत्या से जुड़े कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं. एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 में बेरोजगारी के कारण खुदकुशी करने के आंकड़ों ने किसान आत्महत्याओं को भी पीछे छोड़ दिया है. NCRB की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 में किसानों से ज्यादा बेरोजगारों ने आत्महत्या की है. साल 2018 में 12,936 लोगों ने बेरोजगारी से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी. इसी साल किसान आत्महत्या के आंकड़ों को देखें तो 10,349 किसानों ने खुदकुशी की थी. 

  

गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली संस्था नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने हाल ही में अपराध से जुड़े जो आंकड़े पेश किए वह काफी हैरान करने वाले हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में देश में खुदकुशी के मामलों में 3.6 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में आत्महत्या के 1 लाख 34 हजार 516 मामले दर्ज किए गए थे, जबकि 2017 में 1 लाख 29 हजार 887 लोगों ने खुदकुशी की थी.साल 2017 के आंकड़ों को देखें तो बेरोजगारी से परेशान 12 हजार 241 लोगों ने आत्महत्या की थी जबकि खेती में घाटे से परेशान 10, 655 लोगोंने मौत को गले लगा लिया था. 2016 के मुकाबले 2017 में किसानों की मौत के मामले में कमी देखी गई है. 2016 में 11 हजार 379 किसानों-खेतिहर मजदूरों ने अपनी जान दी थी.  

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, भारत में हर घंटे एक छात्र आत्महत्या करता है, जिसमें हर दिन लगभग 28 आत्महत्याएं होती हैं। NCRB के आंकड़ों से पता चलता है कि 2018 में 10,159 छात्रों की आत्महत्या हुई, 2017 में 9,905 और 2016 में 9,478 छात्रों ने आत्महत्या कि थी.  

  

इंस्टीट्यूट ऑफ साइकेट्री, कोलकाता के निदेशक प्रदीप कुमार साहा ने कहा, "असफलता का डर छात्रों में आत्महत्या का एक प्रमुख कारण है। जब छात्र असफल चरण से गुजरते हैं, तो उन्हें सब कुछ निराशावादी लगता है। उन्हें लगता है कि उनका भविष्य अंधकारमय है और इसके परिणामस्वरूप आत्महत्या हो सकती है। ” 

  

ये तो सिर्फ वे आंकड़े हैं जो सरकारी तौर पर दर्ज़ किये जाते हैं. यहां पर ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी, की इससे कहीं ज़्यादा आत्महत्याएं शायद क़ानून के नज़र में आती ही नहीं. या शायद आत्महत्या करने वाले के परिवार के लोग चाहते ही नहीं की उसकी कोई जांच पड़ताल हो और समाज में बात फैले. कई लोग तो आत्महत्या को भी किसी बीमारी का नाम दे देते हैं. या साफ़ शब्दों में हार्ट अटैक हो गया था, कुछ ऐसा ही कह कर बात को वहीँ ख़त्म कर देते हैं. हम ये क्यों नहीं समझते कि, ऐसा पल आता ही क्यों है कि अपनी ज़िन्दगी को ही ख़त्म करने की सोच दिमाग में उत्पन्न हो जाती है? क्या आपने ये सोचा है? हम और आप जो ज़िन्दगी जी रहे हैं, ये हमें हमारे माता पिता से मिलती है, ये तो आप सभी मानते हैं न? फिर उसी ज़िन्दगी को ख़त्म करने से पह्ले क्या एक बार भी उनका ख्याल मन में आना जायज़ नहीं है? जब किसी व्यक्ति की दुर्घटना में या बीमारी से मृत्यु हो जाती है, तब हम कहते है, भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे! और जो व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है, उनकी आत्मा को शांति मिलेगी? जिस इंसान को जीते जी शांति नहीं मिली, ज़िन्दगी ख़त्म करने के बाद क्या गारंटी है, की उन्हें शांति मिल जाएगी? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं, जिनके जवाब अब हमें ढूंढ़ने हैं.  

  

गलगोटिया कॉलेज की कॉउन्सिलर स्वीटी मिश्रा के अनुसार, "एक अभिभावक और शिक्षक होने के नाते, सबसे ज़रूरी ये है की हम अपने बच्चों का साथ दें. ये नहीं की अपनी इच्छाएं उन पर थोपें, उनकी इच्छा और उनके सपनों को तवज्जो दें. हर बच्चा अपनी एक अलग पहचान के साथ जाना जाता है. हमारा फ़र्ज़ है कि हम उनके अंदर की रचनात्मकता को बाहर निकाले. सबसे अहम् बात आज के इस प्रतियोगिता के दौर में एक होड़ सी मची है, सबको आगे निकलना है. इस भाग दौड़ में उनके सपनों को न भगाये. अपने बच्चों की तुलना दूसरों से न करें. उसे इतने अच्छे अंक आये, तुम्हे क्यों नहीं? इस तरह के सवाल बच्चों को मानसिक तौर पर कमज़ोर और प्रेशर में डाल सकते हैं. अपने बच्चों से बात करें. उनके मन को पढ़ने की कोशिश करें."  

  

  

हर किसी की ज़िन्दगी में ऐसा पल आता है, जब चारों तरफ से सिर्फ और सिर्फ निराशा और अन्धकार ही दिखाई देता है. कई हमारे साथी तो ऐसे भी हैं, जो सीढ़ी चढ़ना तो चाहते हैं, लेकिन गिरने के डर से कदम आगे बढ़ाते ही नहीं. ऐसी स्थिति में आप उन पलों को याद करिये जब नन्हे नन्हे पांव के सहारे आप चलना शुरू करते हैं. तब हमें हमारे माता पिता चलना सिखाते हैं. हम गिरते हैं, चोटें भी लगती हैं, लेकिन फिर भी हमारे बुज़ुर्ग हमारी ऊँगली पकड़ कर हमें चलना सिखा ही देते हैं. जब वे हार नहीं मानते तो हम क्यों हार मान जाते हैं? जब हमें उनकी ज़रूरत रहती है, तब हमेशा वे हमारे साथ खड़े होते हैं. हमें सहारा देते हैं. और जब वक़्त आता है कि हम उनकी लाठी बन उनको सहारा दें, हम तो ज़िन्दगी ही ख़त्म कर लेते हैं. तरक्की की सीढियाँ तो चढ़ने लगते हैं, लेकिन तनाव और अवसाद को भी साथ में लेकर चढ़ते हैं. ये डर मन में समा जाता है, कि कहीं कोई हमसे आगे न निकल जाए या कोई हमें धक्का देकर गिरा दे और आगे बढ़ने ही न दे. दिलोदिमाग ऐसी कश्मकश में फंस जाता है कि अंत में हम इससे उभर नहीं पाते और ज़िन्दगी से हार मान जाते हैं. और फिर आत्महत्या जैसे अपराध का सहारा लेते हैं. जिन लोगों के मन में आत्महत्या के विचार आते हैं, उन्हें कोई और उपाय नहीं सूझता है। उस समय मौत ही उनकी दुनिया बन जाती है और आगे पीछे का सब कुछ भूल बैठते हैं. उनके अंदर आत्महत्या का विचार इतना प्रबल हो जाता है, कि उन्हें कुछ समझ नहीं आता. वे वास्तविक, मज़बूत और तात्कालिक होते हैं और इनका कोई चमत्कारिक उपाय भी नहीं होता है। 

  

किंतु ये भी सत्य है कि: 

हमने ही अपने आप को कैद कर लिया है. आप सब इस बात से वाकिफ़ हैं न, की हमारी संस्कृति में संयुक्त परिवार का चलन शुरू से रहा है. लेकिन अब हमें वही परिवार बोझ लगने लगा है. हम एकल परिवार की ओर बढ़ चुके हैं. हमारे पास अपनों के लिए समय नहीं होता. ऐसी स्थिति में हम अपने विचारों को किसी से साझा नहीं कर पाते और अकेले अकेले मानसिक तौर पर ग्रसित हो जाते हैं.  

आत्महत्या अक्सर एक अस्थायी समस्या का स्थायी समाधान होता है। जब हम अवसादग्रस्त होते हैं, तो हम चीजों को वर्तमान क्षण के संकुचित परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। एक सप्ताह या फिर एक महीने के बाद यही चीजें अलग रूप में भी दिखाई दे सकती हैं। ऐसे अधिकतर लोग जिस समय आत्महत्या करने की सोचते हैं, उसके कुछ समय बाद जीवित रहने की इच्छा भी रखते हैं। उनका कहना होता है कि वे मरना नहीं चाहते - वे केवल अपने अंदर के डर और दर्द को मारना चाहते हैं। ऐसे में हमें और आपको भी उनकी मदद करनी है. सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय ये है कि किसी व्यक्ति से बात की जाए। जिन लोगों के मन में आत्महत्या के विचार आते हैं, उन्हें अकेले ही स्थिति का सामना करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।  

  

वर्तमान समय की बात करें तो, कोरोना वैश्विक महामारी के कारण हमारे बीच सिर्फ शारीरिक दूरियां आयी हैं, मन से और दिल से हम सभी एक दूसरे के साथ हैं. और फिर आज तो विज्ञान और तकनीक के माध्यम से हम सात समुद्र पार भी अपने अपनों से बात कर सकते हैं. बात करिये. अपने विचार अपने दोस्तों से, परिवार से साझा करिये. कोई भी गलत कदम उठाने से पह्ले, एक बार उन लोगों के बारे में ज़रूर सोचिये जिनकी ज़िन्दगी आप हैं. आपकी सांसें किसी के जीने का सहारा है. कोरोना काल की ही बात करें तो कई लोगों ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्यूंकि उनकी नौकरी चली गयी, तो अपने परिवार का ध्यान कैसे रखेंगे ये सोच कर मौत को ही गले लगा लिया, जैसे मानो वही उनका परिवार था. ये कहाँ तक सार्थक है? क्यों हम अपनी मुश्किलें अपने अपनों से नहीं बाँट पाते? परिवार अथवा मित्रों से बात कीजिए। अपने परिवार के किसी सदस्य या मित्र अथवा किसी सहयोगी से भी बात कर लेने से आपको बहुत राहत मिल सकती है। आत्महत्या की सोच आने से पहले एक बार ज़रूर सोचिये की आप किसकी हत्या कर रहे हैं? अपनी या उनकी, जिनकी ज़िन्दगी आप हैं....   

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