सिक्किम की यादें
गुजरे सिक्किम के लम्हें जब याद जेहन में आते हैं तब मन पुलकित हो जाता है हम मन हीं मन मुस्काते हैं पाहाड़ो की खूशबु लेने को जब मन भंवरा बन जाता है जब ठंडी-ठंडी मस्त हवायें चारो तरफ लहराती है तब सामदोंङ्ग की घाटी, दिल से याद हमें बहुत आती है टिस्टा नदी की आवाज कानों में आज भी सुनाई देती है दिल में चमक कंचनजंगा की आज भी दिखाई देती है जब मुसलाधार बारिश कभी यहां बहुत जोड़ लगाती है कभी कभी ओले भी जब बहुत जोड़दार बरसते है तब खेल छोड़ भागना हमें याद बहुत हीं आती है बन्धुओं के संग लड़ाई कभी याद हमें जब आती है बचपन की ये यादें हमें यूं हीं बहुत रूलाती है "गौंथली" चिड़ियों का उड़ना और मिट्टी का घर बनाना "गुंड़ास"का फूलना,धूपियों का बढ़ना और बागों का लहलहाना ऐसी-ऐसी यादें जब यादों में समाती है तो सिक्किम की अनोखी यादें अनायास हीं आ जाती है मुर्गों का ये कुंकरू-कुं बाग जब-जब सुनाई देता है दशैं-तिवार (दशहरा-दीवाली)और मांदल (ढ़ोल) जब ढ़म-ढ़मा-ढ़म बजता है भाई-टिका में "बेबी दी" की याद बहुत हीं आती है तब होता बरबस व्यग्र-मन सिक्किम पहुंच हीं जाता है तब मन- मस्त हो जाता है रोम-रोम पुलकित हो उठता है "राय" की साग की बात करें तो "गुन्द्रुक" भी याद आती है और पचास के इस उम्र में भी तरोताजा हमें बनाती है सब्जियों में "ईस्कूश" कुछ कम न होता जब चर्बियों में इसे पकाते हैं इसे याद कर-करके हम मन हीं मन हर्षाते हैं डाराओं (घाटियों) में घुमना-फिरना झरनों में खुब नहाना लोवर-सामदोङ्ग के तरफ़ जाकर पिकनिक खुब मनाना कालो -दाल और मुर्ग-मस्सलम एकसाथ उड़ाना कम नहीं ये यादें कि झाड़ी में छुपकर पढ़ना मस्त-मस्त नज़ारों के संग कंदराओं में खेलना मांखा ,डिक्चू,जोड़थाङ्ग,नामथाङ्ग राले-खेसे,तुमिन,सामदोङ्ग में रहना स्वर्गिक-सुन्दर है यह जगह और क्या अब कहना