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चाह परवाज़ की

5 April 2023

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*मेरी स्वलिखित सबसे पसंदीदा पंक्तियाँ* 

सीखी थी परवाज़ उसने अभी अभी,
नहीं थे पर जब तक सोचता था,
उड़ूँगा एक दिन खुले आसमानों पर, 
नदियों सागरों और हरे मैदानों पर, 
उड़ने को पर मिल गए हैं आज, 
चलूँ, अब भरूँ ऊँची परवाज़।
अपने पवन वेगीय परों पर हो चला था,
 उसे नाज़!

आज भर दी उड़ान, 
अपने कुछ बंधुओं के साथ
पहले कुछ डरता सा, 
घबराया ,सकुचाया
जल्द ही दूर निकल आया!

ऊंची उड़ानें भरते हुए
जंगलों झरनों को पार करते हुए
गर्वित था अपने परों पर
आज उड़ रहा था इस दुनिया के ऊपर!

कहाँ वो छोटा सा नीड,
माँ का थोड़ा सा चुग्गा,
और पेड़ की बस एक डाली,
आज सारी दुनिया उसकी है,
ये खुला आसमान,
 ये समीर मतवाली!

नीचे दूर 
दिख रहे थे कुछ विहग,
करते हुए किलोलें,
खोलते, बन्द करते पंखों को,
छोटी नदी की धारा पर,
खाते हुए हिचकोले!
वो भर गया दर्प से 
की उनकी और अपनी तुलना
अहा! बेचारे इन खगों का क्या है जीना!

लाचार हैं इनके पर
रह जाते हैं बस,
 एक छोटी सी उड़ान भर
वो इतरा रहा था,
आकाश में दूर, और दूर जा रहा था
संध्या आ रही थी!
संगी वापस मुड़ जाने लगे
अपनी ही भाषा में उसे बुलाने लगे!

पर उसे अब संगियों की,
 और नीड की,
न चाह थी,
बेपरवाह आगे बढ़ता रहा
नीचे लहरें सागर की अथाह थी!

उड़ता गया चलता रहा,
पाने को अभी कुछ और,
निर्जनता,
और कुपित सी लहरों का शोर!
सहसा स्याह होने लगा अम्बर,
घने काले भयानक बादल
भीषण गर्जनाओं से दहलता समंदर!

आक्रांत हो गया, मुड चला
अब नीड की ओर,
करता हुआ परवाज़ को तेज,
किन्तु काल चक्र विपरीत था,
विपरीत था रौद्र पवन का वेग!

वो उड़ा अपनी पूरी शक्ति से,
जोर से फडफ़ड़ाता पंखों को,
कोसता हुआ उस क्षण को,
जब तय किया था,
जीत लूँगा सारा आसमान,
भीगे पंख साथ छोड़ रहे थे,
टूट रहा था सारा अभिमान!

देह गिरने को आतुर,
सांस मानों ऋण सी आती थी,
जीवन मुश्किल लग रहा था,
जिजीविषा लिए चली जाती थी!
सहसा दूर हरियाली ने,
साहिल का अहसास कराया,
अपने पूरे योग से उसने,
 पंखों को फड़फड़ाया!

तूफ़ान रौद्र और रौद्र हो रहा था
भीगे पंख तिनका तिनका हो,
गिर रहे थे,
वो उड़ता गया नदी पर से,
उसे कहाँ सुध थी,
वो पंछी नदी की धारा पर,
अभी भी अठखेलियां कर रहे थे!

आशा में कि नीड अब दूर नहीं,
गिरती देह को सँभालते,
क्षीण बल से हिलाया पंखों को,
 कुछ और जोर से!

 इसी नीड की चाह में तो वो तूफ़ान से लड़ा था,
किन्तु अहा! रे भाग्य
कहाँ था वो नीड? उसका वो विशाल विटप!
सब यहाँ उजड़ा पड़ा था!

उसका संग्राम पड़ गया शिथिल,
पंख निराशा से और बोझिल,
छोड़ दिया उसका साथ,
वो गिरा कंटीली झाड़ियों पर,
ज़मीं से बस एक हाथ ऊपर!

पर तार तार हो गए,
बचाव को जोर लगाया,
बुझते दीपक की तरह,
शेष बची,
पूरी शक्ति से छटपटाया!
उसकी देह से छूटकर,
पंख भी गये बिखर टूटकर!

वो जान गया,
अब प्रतिरोध कुछ न कर पायेगा,
मूँद ली आँखे,
पूछते हुए स्वयं से,
कौन पहले आयेगा,
सांस छूटेंगी पहले,
या उषा का अंशु उसे जगायेगा?

                                         - आशुतोष भारद्वाज