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दीपक नीलपदम

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मेरी प्यारी सी बच्ची, पहले बसंत की प्रतीक्षा में, लेटी हुई एक खाट पर मेरे घर के आँगन में। प्रकृति की पवित्र प्रतिकृति एकदम शान्त, एकदम निर्दोष अवतरित मेरे घर परमात्मा की अनुपम कृति। देखती टुकु

तुम अब घर से बाहर भी मत निकलना और तुम मत अब घर के भीतर भी रहना । मत सोचना कि चंद्र और सूर्य में या फिर इस पृथ्वी  पर भी एक देश में,  किसी शहर में किसी गांव  में  या मोहल्ले में या फिर किसी मक

आजाद हुए थे जिस दिन हम  टुकड़ों में देश के हिस्से थे,  हर टुकड़ा एक स्वघोषित देश   था छिन्न-भिन्न भारत का वेश।     तब तुम उठे भुज दंड उठा भाव तभी स्वदेश का जगा  सही मायने पाए निज देश।  थी गूढ़

वो करेंगे क्या भला, दो कदम जो न चला,  जागने की हो घड़ी पर सुप्त है।                सीढियां जो न चढ़ा,  रह गया वहीं खड़ा,  वो देखते ही देखते विलुप्त है।  पर उधर भी देखिये,  हो सके तो सीखिये,  विज्ञान

मीठा खाय जग मुआ, तीखे मरे ना कोय, लेकिन तीखे बोल ते, मरे संखिया सोय ॥ @नील पदम्   

जब  मातृभूमि को माँ माना था अशफाक, भगत, बोस से जाना था ये गाँधीजी ने भी माना था कि भारत माँ आजाद करें हम गुलामी की जंजीरों से । लेकिन भूल गये तुम सब-कुछ माँ की स्तुति मंजूर नहीं है मैं मानू

बहा पसीना व्यर्थ में,  रोया यदि मजदूर,  जाया उसका श्रम हुआ, पारितोषिक हो मजबूर, नहीं आजादी आई अभी,  समझो वो है अबहूँ दूर ।  (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"                  

अपनी आँखों की चमक से डरा दीजिये उसे,  हँस के हर एक बात पर हरा दीजिये उसे,  पत्थर नहीं अगर तो मोम भी नहीं,  एक बार कसके घूरिये, जता दीजिये उसे ।         (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"  

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