"Main" a poetry by Khwaab | "I" a poem
मैं ।
उलझे धागों में उलझा मैं
हूं बंधा, दुनिया देखे सुलझा मैं
समंदर किनारे बैठे लहरें देखता
उन उछालों में कभी डूबता, कभी सम्भलता मैं ।
मुझे ये आसमाँ बहुत पसंद है
रातों में सितारे गिनता मैं
दर्द को साथ लेके चलता, उसे महसूस करता मैं
बारिशों में भीगता, धूप में पसीजता
सूरज के सिरहाने बस ख्वाब बुनता मैं
मेरी आँखें बहुत कुछ कहती हैं इसलिए
खामोश रहता मैं
खिड़की में खड़ा, खूबसूरत चाँद निहारता मैं
राहों में चलते कभी पाँव पटकता, कभी ज़ोर से चिल्लाता
उन गलियों की यादें समेटता, जहाँ से गुजरता मैं ।
वहां से यहाँ, यहाँ से वहां, ना जाने कहाँ से कहाँ भागता मैं
अब सब खो भी गया तो क्या, ये सोचकर मुस्कुराता मैं
शाम कब होगी, दिन से सवाल करता
रात कब होगी, सन्नाटों से पूछता
गिरता सम्भलता, ठोकरें खाता, और अश्रु बहाके दिल बहलाता मैं ।
बंद मुठी भर मिट्टी जितनी औकात है मेरी
वो फिर भी पेड़ देती है, देता कुछ नहीं मैं
हर एक गलती पर खुद को डाँटता, समझाता मैं
वो ठिकाने कुछ ही दूर हैं, खुद को तस्सलियां देता
घर की छत पर खुले आसमाँ से बातें करता, उसकी खामोशियाँ सुनता मैं !!!
Thank you so much for visiting guys. Have a great day.