आत्मा शब्द के उचारण मात्र से ही एक अलोकिक संसार की परिकल्पना मे हमारा मन विचरण करने लगता है , जबकि इस बारे धर्म शास्त्र भी गवाही दे रहे है कि आत्मा शाश्वत है, नित्य है, अडोल है , नूतन है, सनातन है लेकिन माया के प्रभाव से अपने असल स्वरूप से परीचित नहीं है और शरीर को ही अपना घर मन बैठी है , जब एक साधक पूर्ण गुरु की शरण मे जाता है तो उसे यह ज्ञान प्राप्त ह है कि वह शरीर नहीं है बल्कि वर शरीर मे है, आत्मा जल मे उठे बुलबुले के समान है जिसमे वायु ने प्रा रूप मे प्रवेश किया है और श्वाश पूर्ण होते ही बुलबुला जल मे ही समाहित हो जाता है , आत्मा जन्म मरण से परे है लेकिन माया के बद्ध होने से इसे बार बार शरीर बदलना पड़ रहा है , पूर्ण गुरु मिल तो ये बंधन कट जाया करता है , बंधन काट मिलावे राम , मन मे लागे सहज ध्यान , मिटे क्लेश सुखी हो रही ऐसा दाता सतगुरु कहिए, आत्मा के बारे गुरु अष्टावक्र जी राजा जनक को समझाते हुए बता रहे है कि आत्मा साक्षी है , चिद रूप है और ततवेता की शरण मे जाने से अपने मूल की पहचान कर सकती है .... आप भी आत्मा बारे अपने विचार् सांझे करें जी .।.। विनीत गोपी डोगरा नालागढ़ हिमाचल प्रदेश