कभी-कभी हम कोई अच्छा काम करते हैं। कोई रचनात्मक काम करते हैं। पर जब हमारी रचना को वह सम्मान नहीं मिलता। उसका कोई मूल्य समाज में नहीं होता। तब अब हार मान जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि हम फल की आशा करते हैं। हमें कर्म को ही कर्म का फल समझना चाहिए। जो फल के रस में डूब जाता है, वह कर्म रस से वंचित हो जाता है। इसीलिए तो भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद भगवत गीता में कहा था कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। कर्म का फल कैसा भी हो खट्टा मीठा परंतु कर्म करने का जरूरत है वह महत्वपूर्ण है कर्म करने का रहस्य हमें ब्रह्म से जोड़ता है। इसे ही कर्म योग कहते हैं और यही मुक्ति का मार्ग।