shabd-logo

३० दिसंबर २०२२

2 March 2023

29 Viewed 29

अनहोनी या चमत्कार 

उस दिन हर रोज़ की तरह हीं मैं अपने समय पर आफिस के लिये घर से निकला। निकलते समय हीं मेरी बेटी ने कहा कि आज उसे ट्युशन पढने के लिये सुबह हीं जाना है। जाने क्युं मगर उस सुबह मैंने अपने बेटे को स्कूल नहीं भेजा था। पता नहीं मन में क्या चल रहा था कि उसे स्कूल भेजने से मुझे कोताही हो रही थी। मेरी पत्नी मेरी बेटी को अकेले पढने जाने देना नहीं चाहती थी। तो मैंने मज़ाक मे हीं उनसे कह दिया कि आज तुम ही बेटी को पढने छोड आना। चुकि मेरे दोनों हीं बच्चे एक ही जगह पर पढते है तो दोनों को एक ही साथ जाना भी पडता है। मेरी पत्नी घर से बाहर का कोई भी काम नहीं करती है। उसके सारे कम मुझे हीं करने पडते है और इसमे मुझे कोई शिकायत भी नहीं है। वो विगत लगभग पांच सालों से मांसिक रोग से संघर्ष कर रही है। मगर आज तक कभी भी टूटी नहीं। हालांकि मैं उसके रोग़ के विषय में यहाँ चर्चा नहीं करना चाहता था पर ऐसा ना करने से आगे हुई घटना को आप सही से समझ नहीं पायेंगे इसिलिये मुझे यह बताना पडा। मैं घर से निकलकर सही समय पर आफिस जा पहूंचा। सब कुछ किसी आम दिन के तरह हीं चल रहा था। तभी मेरे फोन की घंटी बज उठती है।

उस समय घडी सुबह के सवा दस बजा रही थी। फोन पर दुसरे तरफ से मेरी बेटी बोल रही थी “पापा, माँ हम दोनों को पढने के लिये छोडने आयी थी। अभी हम लोग मिस के घर पर है मगर माँ अकेले हीं घर के लिये निकल पडी है”। उसके यह शब्द मेरे दिल में किसी तीर के तरह धंस गये, कारण था मेरी पत्नी जी का रास्तों का अधम ज्ञान। उसके मानसिक स्थिति के कारण वो ज्यादा घर से नहीं निकलती थी यह तो मैं उपर बता हीं चुका हूँ मगर यह नहीं बताया कि उसे रास्ते समझने और याद रखने में भी परेशानी होती थी। मेरे तत्कालिन घर से बेटी के मिस का घर बहूत ज्यादा होगा तो ७०० से ८०० मिटर की दूरी पर ही होगा। रास्ता भी बडा सरल और सीधा ही है मगर मैं जानता हूँ कि मेरी पत्नी उसमें भी उलझ सकती है। मेरी बेटी का यह कहना और मेरे मन में किसी अनहोनी की आशंका का जागना दोनों मे एक पल की भी देरी नहीं थी। मुझे बेटी की बातों मे भी आशंका की झलक सुनाई दे रही थी।

वो भी इस बात पर सहमत थी कि उसकी माँ रास्ता भटक सकती है। उसने मुझे कहा कि मैं उसे यानी के अपनी पत्नी को दस मिनट के बाद घर पर फोन कर लूँ ताकि उसके सही सलामत घर पहूँचने की जानकारी मिल जाये। जब मुसिबत आती है चारों तरफ से आती है। मेरी बेटी को इस बात का डर था कि माँ को मोबाइल के बारे में ज्यादा जानकारी नही है। उसके हाथ में मोबाइल होते हुए भी उसे बात करने के अलावा और कुछ नहीं आता। खुद के रोग से परेशान वो बेचारी खुद से फोन करने में भी असमर्थ है। उसके उपर से आज हीं उसके फोन का बैलेंस भी खतम हो गया था। मुझे याद था कि उसका फोन डेड है मगर किसी कारण से मैं उसके फोन को रिचार्ज नहीं कर पाया। यह मेरी भूल थी। एक ग़लती मेरी बेटी से भी हुई, उसे भी मालुम था कि उसकी माँ का फोन काम नहीं कर रहा मगर उसने जाते समय उसे अपना फोन नहीं दिया। अब किसी को दोष देने का क्या फायद? मुद्दा यह था कि इस समय उसके पास हमसे बात करने का कोई भी साधन नहीं था। मुझे यह बात समझ में आते हीं मैंने फौरन ही उसके नंबर पर एक रीचार्ज करवाया मगर अब तक किसी कारण उसका फोन बंद हो चुका था।

मेरे और मेरी बेटी दोनों के मन की बेचैनी बढती हीं जा रही थी। चुकी अभी तक मेरे बॉस आये नहीं थे तो मैं आफिस से निकल पाने में असर्थ था। लेकिन मेरी बेटी का मन नहीं माना और वो झट से अपनी सहेली के साथ हमारे घर जा पहूंची। एक समझदारी वाला काम उसने यह किया कि अपने छोटे भाई को अपने साथ लेकर नहीं आयी। घर आकर जब उसने मुझे फोन करके बताया कि माँ अभी तक घर नहीं लौटी है तो मै समझ गया था कि काण्ड हो चुका है। उस समय मुझे समझ से काम लेना था और भगवान की दया से मैंने वही किया। सबसे पहले मैने अपनी बेटी की सहेली को कहा कि वो उसे लेकर घर लौट जाये और जबतक मैं ना आऊँ उन दोनों मे से किसी को भी अकेला नहीं छोडे। इधर मैं अपने बॉस के आने की राह देखने लगा। मुझे मालूम था कि जितनी देर तक मैं यहाँ अटका रहुंगा मुसीबत उतना ही भयंकर रूप ले लेगी। और हो भी वही रहा था। ऐसे मामलों में पहले आधे घंटे सबसे महत्वपुर्ण होते। इंसान के चलने की गति आम तौर पर ६ कि.मी. प्रति घंटे के आस पास होती है। और एक अधेर उमर की की घरी स्त्री की गति उससे भी धीमी होती है।

मेरे पत्नी वैसे भी बीमार ही थी तो उसके चलने के गती सबसे धीमी थी। तो आधे घंटे में वो हमारे मुहल्ले से बहर तो नहीं जा सकती थी। मगर मुझे आफिस में देरी पर देरी हुए जा रही थी। मेरे बॉस के आने में और उनसे मुझे मिलकर सारी बात समझाने में एक घंटे से ज्यादा का समय हो चुका था। मुझे समझ में आ रहा था कि वो हर घडी हर पल मुझसे दूर और दूर निकलती जा रही थी। खैर मैं किसी भी तरह से अपने बॉस को समझा कर आफिस से निकलने में कामयाब हुआ। मेरे आफिस से मेरे घर की दूरी आधे घण्टे से कम की नही है। मुझे घर पहूंचने में बारह बज चुके थे। आफिस से घर के रास्ते में मैं बार बार उसका नम्बर मिला रहा था कि शायद उसे समझ में अ जाये और वो अपना फोन एक बार आन कर ले। मगर सब बेकार। पुरे रास्ते मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि वो उसे खो जाने से बचा ले। यह तो तय हो चुका था कि वो अपने घर का रास्ता भटक चुकी थी मगर अभी तक शायद खोई नहीं थी। वो अभी भी हमारे मुहल्ले के आस पास ही होगी यही मुझे यकिन था।

उस समय मैं बस रोया नहीं था, आँसू तो कब से आखों मे छलक रहे थे। मुझे हिम्मत बनाये रखना था। अपने दोनों बच्चों के लिये। मैं रो नहीं सकता था। कुत्ते की तरह हाँफ़ते हुए मैं अपने घर जा पहूंचा। देखा दरवाजे पर अभी भी ताला लगा हुआ था। उस एक पल ने मुझे मेरी पत्नी के खो जाने के डर से अंदर तक हिला कर रख दिया। मैं भागा भागा मेरी बेटी के पास गया और उसे सही सलामत पाकर थोडा राहत की सांस ली। मैंने  उसके मिस से कहा कि जब तक मैं ना लौटूँ वो उन दोनों के अपने ही पास रखने का कष्ट करे। मैं फिर से बाहर निकला और अपने घर के आस-पास के एक किलोमिटर का पुरा चक्कर लगा आया। मगर मेरी जान कहीं भी नहीं दिखी। मुझे लगने लगा थी कि मैं उसे खोता जा रहा हूँ। बेटी अलग रो रही थी और मैं अलग हैरान हो रहा था। करीब-करीब अधे घंटे तक अकेले हीं ढूंढने के बाद मुझे लगा की मुझे किसी और को भी यह बात बतानी चाहिये ताकि किसी को अगर वो कहीं रास्ते में दिख जाये तो उसे लेकर सिधे घर चला आये। मैंने आज तक खुद को इतना लाचार और कमज़ोर कभी भी महसूस किया था जितना मुझे इस दौरान महसूस हो रहा था।

मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि मैं उसे किस दिशा में ढूंढू? कौन सी गली में जाऊँ, किस मकान के बाहर आवाज लगाऊँ कुछ समझ नहीं आ रहा था। बस एक ही आवाज़ आ रही थी मन से – “जान तुम जहाँ हो वहीं ठहर जाओ मैं तुम्हे ढूंढ लुंगा”। बस बहुत हो गया मैंने अपने साढू को, जो की मेरे घर से करीब दो किलोमिटर की दूरे पर रहता है, फोन लगाया। उसके फोन उठाते हीं मैंने उससे पुछा कि वो कहाँ है? मगर मेरे इस सवाल के जवाब में उसने जो कहा वो मेरे लिये किसे चमत्कार से कम नहीं था। उसने कहा – आप घबराइये मत, आपकी पत्नी मुझे मिल गयी है। मैं उसे लेकर घर हीं आ रहा हूँ। घर आकर बात करता हूँ। यह शब्द मेरे लिये किसी जीवन दायिनि औषधी से कम नहीं थे। बिना समय गवाये मैंने अपनी बेटी को फोन करना चाहा मगर इससे पहले उसिका फोन मेरे पास आ गया। वो भी वही कर रही थी कि मौसा जी माँ को अपने साथ लेकर आ रहे हैं। तो बात स्पष्ट हो गयी कि यह बात सच है। सवाल तो कई थी मगर अभी सबसे राहत वाली बात यही थी कि वो रास्ता भटकने के बाद भी घर वापस आ रही थी।

आज मुझे अपने पौरुष पर और झुठे अहम पर बहूत हीं लज्जा आ रही थी। हम अक्सर अपने प्यारे इंसान को कहते है कि तुम चाहे जहाँ भी चले जाओ हम तुम्हे ढूंढ निकालेंगे। कितनी खोखली होती है ना ये बातें? हम बस खुद को तसल्ली देने और दुसरे को हिम्मत देने के लिये हीं यह सब कहते है। असल में ये वादें कितने बेबुनियाद होते है यह मुझे उन तीन घंटों मे पता चल गय था। मैं जान गया था कि एक बार खो गया आदमी आसानी से घर नहीं लौट पाता। यहाँ तो स्वस्थ आदमी भी रास्ता भटक जाने पर भयभीत हो जाता है फिर मेरी पत्नी तो ...........। उस एक पल जब मुझे पता चला था कि वो खो गयी है और फिर जब यह कि वो मिल गयी अहि दोनों हीं समय के भाव में ज़मीन आसमान का अंतर था। मैंने भगवान का अभार जताया, मन हीं मन हाथ जोडे और कोटी-कोटी धन्यवाद भी दिया। अब बस मुझे उसके आने का इंतज़ार था। करीब आधे घंटे के बाद वो मेरे साढू के साथ बाइक पर बैठे हुए आयी। चेहरा सुखा हुआ, आंखे लाल, अब रोये की तब रोये। मुझे देखते हीं वो झट से मेरे गले आ लगी। मैंने उनका अभार जताया और कहा कि मैं उनसे बाद में बात करुंगा, पहले इसे कमरे में ले जाता हूँ। उसे कमरे में लाते हीं मैंने  उसे भींच कर गले से लगा लिया। ऐसा लगा कि मानो जैसे कोई बच्चा अपनी माँ से बिछड कर मिल रहा हो। हम दोनों के हीं आंखों मे आँसू थे और हम में से कोई भी उसे रोक भी नहीं रहा था। दस मिनट के बाद मैं उठा और जाकर अपने दोनों बच्चों को घर ले आया। रोने का सिलसिला फिर से चला मगर इस बार माँ और बेटी का। बेटा इतना छोटा है कि कुछ समझ ही नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है? यहाँ तक तो कहानी थी हमारे तरफ की यानी कि मेरी और मेरे बेटी के तरफ की। मगर अभी मेरी पत्नी के हिस्से की कहानी बाकी थी।

हुआ युं कि मेरी बेटी ने उन्हे अपने साथ ले जाते समय सभी रास्ते ध्यान से समझाये थे। एक एक गली सही से दिखायी थी और हरेक गली का एक खास निशान भी बताया था। मगर मेरी पत्नी वो सब ध्यान में रख नहीं सकी। सबसे पहले उसने पहली वाली दायीं गली छोडी और आगे बढ गयी। वो एक मात्र गली थी जो हमारे घर को वापस आती है। अब एक बार जो उलझी तो बस फिर उलझती हीं चली गयी। जबतक वो समझती कि वो रास्ता भटकी है वो असल में खो चुकी थी। अपने मांसिक स्थिति के कारण वो ना तो पिछे पल्टी और ना हीं किसी गली में हीं मुडी, वो तो बस अपनी नाक की सीध में हीं चलती रह गयी। काफी समय के बाद उसे यह एहसास हुआ कि मैं खो चुकी हूँ। पता नहीं क्युं उसने फोन को दोबारा चेक हीं नहीं किया। जो मुझे लग रहा था कि उसका फोन बंद है असल में उसका फोन फ्लाईट मोड में चला गया था। यह समझते हीं कि वो खो चुकी है वो घबरा गयी और बेचैन हो गयी। इसी बेचैनी में वो और भी तेजी से आगे बढने लगी। ना तो कहीं रुकी और ना हीं कहीं मुडी बस सिधी चलती चली गयी। और चलते चलते वो हमारे निवास से करीबन पांच किलोमिटर दूर निकल गयी।

कितने कच्चे-पक्के रास्तों से होते हुए और ना जाने कैसे-कैसे वो हमारी बेटी के स्कूल तक जा पहूंची। स्कूल देखकर उसे लगा कि शायद वो सही रास्ते पर है मगर यहाँ भी उससे एक भूल हो गयी। उसे स्कूल से उत्तर की तरफ बढना था मगर रास्ता सही से नही जानने कारण वो दक्षिण की ओर बढने लगी। और फिर तेज़ी से चलती हीं चली गयी। उसे कुछ कुछ याद आ रहा था कि आगे एक मछली बाज़ार है, फिर एक आटो स्टैंड भी है मगर यहाँ उसे कुछ भी नहीं मिल रहा था। वो काफी देर से चल रही थी और अब थकने लगी थी। उसका मन रोने को हो रहा था मगर रास्ते में रो भी नहीं पा रही थी। किसी से रास्ता पुछ ले यह भी उसके हिम्मत के बाहर था। कहती है कि तभी उसने साईं बाबा का नाम लिया और प्रार्थना कि की वो उसे घर तक पहूंचा दे। और तभी अचानक से उसे सामने हमारे साढू भाई खडे दिखे। वो वहाँ अपने काम से गये हुए थे। एक चाय कि दुकान पर चाय पी रहे थे। मेरी पत्नी को वहाँ देखना उनके लिये किसी आश्चर्य की बात थी। उहोनें ने हीं उसे हाथ दिखाते हुए रोका। और पुछा कि वो यहाँ कहाँ क्या रही है।

उन्हे देखकर पत्नी ने सारी बात बता दी। वो मेरी पत्नी के मांसिक बीमारी के बारे में जानते है। उन्हे समझते देर नहीं लगी कि क्या हुआ होगा। खैर भग्वान की कृपा से मेरी बिवि घर को लौट आयी। हम सब ने राहत की सांस ली। उसे पानी पिलाया और आराम करने को कहा। यह सब किसी चमत्कार से कम नहीं था। मेरी बिवी का उसी रास्ते पर जाना जहाँ मेरे रिश्तेदार खडे थे और उनका वहीं पर खडा होकर चाय पीना। वो भी उसी समय पर। मेरा उनको उन दोनों के मिलने के बाद हीं फोन करना। सबकुछ किसी चमत्कार से कम नहीं था।

क्या होता जो वो किसी और रस्ते पर चली जाती? क्या होता जो मेरे साढू भाई वहाँ नहीं मिलते? क्या होता जो मैंने दस मिनट पहले अपने साढू को फोन किया होता? सब चमत्कार था और उपर वाले की मर्ज़ी। एक बहूत बडी अनहोनी होते होते रह गयी। मैं अकेला होते-होते रह गया। मेरे बच्चे अनाथ होने से बच गये। मेरी जान जाने से बच गयी। यह एक सबक था मेरे लिये कि मैं अपने परिवार का ज्यादा खयाल रक्खूँ। अपनी ग़लती सुधारूँ, अपने घर को बचाऊँ। उपर कहीं तो कोई है जो मुझपर थोडा सा मेहरबान है। मैंने उसकी नज़र में कुछ तो अच्छा किया होगा जो उसने मेरे घर को बिखरने से बचा लिया। मैं तहे दिल से उसका अभार व्यक्त करता हूँ और उसे धन्यवाद करता हूँ।