"कहाँ जाना है?"
"अनजानी डगर।"
मृदुल का ये जवाब सुन बस कंडक्टर उसे ऊपर से लेकर नीचे तक घूर के देखने लगा और फिर मृदुल के बाजू वाली सीट पर बैठकर उससे कहने लगा
"भाई कितने पेग पिये थे?"
मृदुल बस कंडक्टर की ओर देखता हुआ उसके गले में हाथ डाल और एक जोर की श्वास खींचकर बोला
"ज्यादा नहीं दादा एक ही पेग पिया था और वो भी तीन साल पहले मगर नशा इतना तगड़ा था कि आज तक नहीं उतरी।"
"अच्छा भाई, फिर तो मुझे भी बताओं कौन-सा पेग था जो इतना नशा करता है? मैं भी पीकर देखूँ, कम से कम रोज की शराब का खर्चा तो बचेगा।"
"दादा! वो पेग कोई शराब-वराब का नहीं था, वह पेग था इश्क़ का और जिसने ये पेग पी लिया उसका कभी फिर नशा उतरा नहींं। हाँ मगर ये नशा जानलेवा भी है पता ही नहीं चलता कब कैंसर बन जिंदगी में जम जाता है और धीरे-धीरे हँसते-मुस्कुराते आदमी को श्मशान में लकड़ी के ढेर पर सुला देता है, पीओगे?
"नहीं भाई, रामजी दूर ही रखे ऐसे पेग से तो।"
बस धीरे-धीरे अपनी चाल पकड़कर आगे को बढ़ने लगी थी। कंडक्टर को भी बस में बैठी बाकी सवारी के टिकट काटने थे तो वो उठकर खड़ा हो गया और मृदुल से बोला
"मुझे और भी टिकट काटने है बताओं तुम्हारा कहाँ का काटूँ?"
मृदुल ने मन में कुछ विचार किया और फिर कंडक्टर से बोला
"दादा! ये बस कहाँ तक जाती है?"
"बम्बई तक"
"तो ठीक है वहीं तक का काँट दो।"
"भाई तुम तो अनजानी डगर का बोल रहे थे"। ये कहकर कंडक्टर हँसता हुआ टिकट काटकर आगे बढ़ गया और बस भी अब अपनी पूर्ण गति से सड़क पर मुम्बई की ओर दौड़ने लगी।