गुरु तेग बहादुर जी, सिखों के नौवें गुरु, का जीवन और बलिदान मानवता, धर्म, और सहनशीलता के महान आदर्शों का प्रतीक है। उनका जन्म 1 अप्रैल 1621 को अमृतसर में हुआ था। वे गुरु हरगोबिंद जी के सबसे छोटे पुत्र थे। बचपन में उन्हें त्याग मल के नाम से पुकारा जाता था। उनकी शिक्षा-दीक्षा धर्म, शास्त्र, और शस्त्रों में हुई।
ऐतिहासिक कहानी
गुरु तेग बहादुर जी ने अपने जीवन में धर्म और मानवता की रक्षा के लिए महान कार्य किए। 17वीं शताब्दी में, मुगल बादशाह औरंगज़ेब ने हिंदू धर्म और अन्य धर्मों के अनुयायियों पर अत्याचार किए। उसने बलपूर्वक धर्मांतरण करने की कोशिश की। कश्मीरी पंडितों ने औरंगज़ेब के अत्याचारों से बचने के लिए गुरु तेग बहादुर जी से मदद मांगी। गुरु जी ने उनकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने का निर्णय लिया।
उन्होंने कहा:
"चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊँ, गिदड़ाँ नूं मैं शेर बनाऊँ।"
(अर्थात, मैं कमजोर को ताकतवर बनाऊंगा और अन्याय के खिलाफ लड़ूंगा।)
गुरु जी ने धर्म और सच्चाई के लिए दिल्ली में आत्मसमर्पण कर दिया। उन्हें औरंगज़ेब के सामने इस्लाम धर्म स्वीकार करने या मौत को गले लगाने का विकल्प दिया गया। गुरु जी ने धर्मांतरण से इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप, 24 नवंबर 1675 को चांदनी चौक, दिल्ली में उन्हें शहीद कर दिया गया।
गुरु जी की महिमा
- धर्म और स्वतंत्रता के रक्षक: गुरु तेग बहादुर जी ने धर्म की रक्षा के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया।
- सहनशीलता का प्रतीक: उन्होंने सहिष्णुता और धार्मिक स्वतंत्रता के सिद्धांत को बढ़ावा दिया।
- सच्चे नेता: उन्होंने अपने अनुयायियों को निडरता और मानवता का पाठ पढ़ाया।
- श्री गुरु ग्रंथ साहिब में योगदान: गुरु जी ने 115 पदों की रचना की, जो आज भी सिख धर्म के अनुयायियों के लिए मार्गदर्शन का स्रोत हैं।
उनकी शहादत का प्रभाव
गुरु तेग बहादुर जी की शहादत ने सिख धर्म को और मजबूत किया। उनके पुत्र, गुरु गोबिंद सिंह जी, ने खालसा पंथ की स्थापना की और सिख धर्म को एक संगठित और सशक्त समुदाय बनाया।
गुरुद्वारा शीश गंज साहिब, दिल्ली में उनकी शहादत को स्मरण करते हुए बनाया गया है। उनका जीवन हमें धर्म, मानवता, और न्याय के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।